Sunday, December 9, 2012

मंदिर के गुंबद का रहस्य ...मां का जन्म



मंदिर के गुंबद का रहस्य
मेरी पुकार मुझ तक लौट के आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया
जैसे कि इस मुल्क में मंदिर बने। और कोई तीन चार तरह के मंदिर खास तरह के मंदिर हैं जिनके रूप में फिर सारे मंदिर बने। इस मुल्क में जो मंदिर बने वे आकाश कि आकृति में हैं जो गुंबद है मंदिर का वह आकाश कि आकृति में है। और प्रयोजन यह है कि अगर आकाश के नीचे बैठ कर मैं ओम का उच्चार करूं तो मेरा उच्चार खो जायेगा, मेरी शक्ति बहुत कम है, विराट आकाश है चारों तरफ। मेरा उच्चार लौट कर मुझ पर नहीं बरस सकेगा, खो जायेगा। मैं जो पुकार करूंगा, वह पुकार मुझ तक लौट के नहीं आएगी, वह अनंत में खो जाएगी। मेरी पुकार मुझ तक लौट के आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया। वह आकाश छोटी प्रतिकृति है, ठीक अर्ध गोलाकार, जैसा आकाश पृथ्वी को चारों तरफ छूता है ऐसा एक छोटा आकाश निर्मित किया है। उसके नीचे मैं जो भी पुकार करूंगा, मंत्रोच्चार करूंगा, ध्वनि करूंगा, वह सीधी आकाश में खो नहीं जाएगी। गोल गुंबद उसे वापस लौटा देगा। जितना गोल गुंबद, उतनी सरलता से वह वापस लौट आएगी -उतनी ही सरलता से। और उतनी ही ज्यादा प्रतिध्वनियां उसकी पैदा होंगी। अगर ठीक व्यवस्था से गुंबद मंदिर का बना हो। और फिर तो ऐसे पत्थर भी खोज लिए गए जो ध्वनियों को वापस लौटने में बड़े सक्षम हैं।

जैसे कि अजंता का एक बौद्ध चैत्य है। उसमे लगे पत्थर ठीक उतनी ही ध्वनि को तीव्रता से लौटाते हैं, उतनी ही चोट को प्रतिध्वनि करते हैं, जैसे तबला। जैसे आप तबले पर चोट कर दें, ऐसा पत्थर पर चोट करें तो इतनी आवाज होगी। अब वह बहुत विशेष मंत्रो को, जो बहुत सूक्ष्म हैं, साधारण गुंबद नहीं लौटा पाएगा, उसके लिए उन पत्थरों का उपयोग किया गया है।

क्या प्रयोजन है? जब आप ओम का उच्चार करते हैं-और सारे गुंबद के नीचे ओम का उच्चार हुआ है, वह ओम के उच्चार के लिए ही निर्मित किया गया है-जब सघनता से, बहुत तीव्रता से आप ओम का उच्चार करते हैं, और मंदिर का गुंबद सारे उच्चार को वापस आप पर फेंक देता है, तो एक वर्तुल निर्मित होता है, एक सर्किल निर्मित होता है। उच्चार का, ध्वनि का, लौटती ध्वनि का एक सर्किल निर्मित हो जाता है। मंदिर का गुंबद आपकी गूंजी हुई ध्वनि को आप तक लौटा कर एक वर्तुल निर्मित करवा देता हैं। उस वर्तुल का आनंद ही अद्भुत है।

अगर आप खुले आकाश के नीचे ओम का उच्चार करेंगे, वह वर्तुल निर्मित नहीं होगा और आपको कभी आनंद का पता नहीं चलेगा। वह जब वर्तुल निर्मित होता है तभी आप, तब आप सिर्फ पुकारने वाले नहीं हैं, पाने वाले भी हो जाते हैं। और उस लौटती हुई ध्वनि के साथ दिव्यता कि प्रतीति प्रवेश करने लगती है। आपकी की हुई ध्वनि तो मनुष्य की है, लेकिन जैसे ही वह लौटती है, वह नये वेग और नई शक्तियों को समाहित करके वापस लौट आती है।

इस मंदिर को, इस मंदिर के गुंबद को मंत्र के द्वारा ध्वनि-वर्तुल निर्मित करने के लिए प्रयोग किया गया था। और अगर बिलकुल शांत, एकांत स्थिति में आप बैठ कर उच्चार करते हों और वर्तुल निर्मित हो, तो जैसे ही वर्तुल निर्मित होगा, विचार बंद हो जाएंगे। वर्तुल इधर निर्मित हुआ, उधर विचार बंद।

जैसा कि मैंने कई बार कहा है, स्त्री पुरुष के संभोग में वर्तुल निर्मित हो जाता है शक्ति का। और जब वर्तुल निर्मित होता है तभी संभोग का क्षण समाधि का इशारा करता है। अगर पद्मासन या सिद्धासन में बैठे बुद्ध और महावीर कि मूर्तियां देखें तो वे भी वर्तुल ही निर्मित करने के अलग ढंग हैं। जब दोनों पैर जोड़ लिए जाते हैं और दोनों हाथ पैरों के ऊपर रख दिए जाते हैं तो पूरा शरीर वर्तुल का काम करने लगता है। खुद के शरीर कि विद्युत फिर कहीं बाहर नहीं निकलती पूरी वर्तुलाकार घूमने लगती है। एक सर्किट निर्मित होता है। और जैसे ही सर्किट निर्मित हो जाता है वैसे ही विचार शून्य हो जातें हैं। अगर विद्युत कि भाषा में कहें तो आपके भीतर विचारों का जो कोलाहल है वह आपकी ऊर्जा के वर्तुल न बनने कि वजह से हैं। वह वर्तुल बना कि ऊर्जा समाहित और शांत होने लगती है।

तो मंदिर के गुंबद से वर्तुल बनाने कि बड़ी अद्भुत प्रक्रिया है और अंतरंग अर्थ उसके हो गए।
-ओशो
‘गहरे पानी पैठ’ पुस्तक के
प्रवचन माला 1 से संकलित एक अंश
पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध
है
मां का जन्म
बच्चा जब पैदा होता है तो बच्चा ही नहीं पैदा होता, उसके साथ मां भी पैदा होती है
लोजिम नाम के एक चिकित्सक ने आदमी की चेतना पर भरोसा किया और हजारों स्त्रियों को दुख और दर्द से रहित बच्चे पैदा करवाने की व्यवस्था की है। वह कॉन्शियस कोआपरेशन का मेथड है-कि जब बच्चा पैदा हो तो मां मेडिटेटिवली, ध्यानपूर्ण ढंग से बच्चे को जन्म में सहयोगी बनें। वह राजी हो जाए, लड़े न, रेसिस्ट न करे। जो दर्द है वह बच्चे के पैदा होने से नहीं होता, वह मां की लड़ाई से पैदा होता है। वह पूरे वक्त जन्म देने के यंत्र को सिकोड़ रही है। वह डर रही है कि दर्द होगा; भयभीत है कि बच्चा पैदा न हो जाए। यह फियर सेंटर्ड रेसिस्टेंस उसको बच्चे को पैदा होने से रोक रहा है और बच्चा पैदा होना चाह रहा है। उन दोनों के बीच लड़ाई चल रही है-मां और बेटे के बीच लड़ाई है! उस लड़ाई में दर्द है। दर्द स्वाभाविक नहीं है, सिर्फ संघर्ष है, रेसिस्टेंस है।

इस रेसिस्टेंस को दो तरह से हम हल कर सकते हैं। एक कि शरीर की तरफ से हम मां को बेहोश कर दें। लेकिन ध्यान रहे, जो मां बेहोशी में अपने बच्चे को जन्म देगी वह पूरे अर्थों मां कभी न हो पाएगी। क्योंकि उसका कारण है। बच्चा जब पैदा होता है तो बच्चा ही नहीं पैदा होता, उसके साथ मां भी पैदा होती है। बच्चे का पैदा होना दोहरा जन्म है। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ एक साधारण स्त्री मां हो जाती है, जो उसके पहले वह नहीं थी। अगर बेहोशी में बच्चा पैदा हुआ तो मां और उसके बच्चे के बीच के बुनियादी संबंध को हमने विकृत किया। मां पैदा नहीं हो पाएगी, नर्स रह जाएगी पीछे।

इसलिए मैं राजी नहीं हूं कि केमिकल ढंग से, शारीरिक ढंग से मां की बेहोशी में बच्चे को जन्म दिया जाए। मां पूरी कॉन्शियस होनी चाहिए अपने बच्चे के जन्म के क्षण में, क्योंकि उसी कॉन्शियसनेस में मां का भी जन्मा होगा।

अगर यह दूसरी बात सही मालूम पड़े, तो इसका मतलब यह हुआ कि मां की चेतना की ट्रेंनिग होनी चाहिए बच्चे के जन्म के वक्त। मां को सिखाना चाहिए कि जन्म के क्षण को वह ध्यानपूर्ण ढंग से ले ले। ध्यान का अर्थ मां के लिए दो होंगे। एक तो वह रेसिस्ट न करे, विरोध न करे। जो हो रहा है, उसके होने में सहयोगी हो। जैसे नदी बह रही है, जहां गढ्ढा मिल जाता है वहीं बह जाती है। जैसे हवाएं बह रही हैं। जैसे वृक्ष से सूखे पत्ते गिर रहे हैं। कहीं कुछ खबर नहीं होती, वृक्ष से सूखा पत्ता नीचे गिर जाता है। ऐसे मां पूरी तरह, जो घटना घट रही है, उसमें सहयोगी हो-टोटल कोआपरेशन, पूर्ण सहयोग।

अगर मां अपने बच्चे को जन्म देते वक्त पूर्णतया सहयोगी हो जाए, कोई विरोध न करें, कोई भय न करे और जन्म की जो घटना घट रही है उसमें पूरी ध्यानपूर्ण होकर रसलीन हो जाए, तो पेनलेस बर्थ हो जाएगा, दर्द उससे विदा हो जाएगा। और यह मैं वैज्ञानिक आधारों पर कह रहा हूं; हजारों प्रयोग किए गए हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। वह दर्द मुक्त हो जाएगा।

और ध्यान रहे, इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। पहला तो जिससे हमें दर्द मिले पहले ही क्षण में, उसके प्रति हमारे दुर्भाव बनने शुरू हो जाते हैं। जिससे हमारा संघर्ष हो पहले ही क्षण में, उससे हमारी दुश्मनी की यात्रा शुरू हो जाती है। उससे हमारी मैत्री के संबंध में बाधा पड़ जाती है। जिससे हमारी पहले ही कांफ्लिक्ट शुरू हो गई हो, उसके साथ कोआपरेशन बांधना बहुत मुश्किल हो जाएगा, ऊपरी हो जाएगा।

लेकिन जिस क्षण हम सहयोग से और सचेतन रूप से बच्चे को जन्म दे पाएं...। तो यह बड़े मजे की बात है। अब तक हमने प्रसव-पीड़ा शब्द सुना है, प्रसव-आनंद नहीं, क्योंकि हुआ नहीं। लेकिन अगर पूर्ण सहयोग हो तो प्रसव आनंद भी शु़रू हो जाएगा। तो मैं सिर्फ पेनलेस बर्थ के पक्ष में नहीं हूं, ब्लिसफुल बर्थ के पक्ष में नहीं हूं।

अगर हम चिकित्सा का उपयोग करें तो ज्यादा से ज्यादा, एट दि मोस्ट, पेनलेस बर्थ हो सकता है, लेकिन ब्लिसफुल बर्थ नहीं हो सकता। लेकिन अगर चेतना की तरफ से हम शुरू करें, तो एक आनंदपूर्ण जन्म हो सकता है। और हम पहली ही घड़ी से मां और बेटे के बीच एक अतंर्सबंध-सचेतन....।
-ओशो
पुस्तक हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्
प्रवचनमाला 1 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 
शासन की आवश्यकता क्यों?
शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए; अन्यथा बड़ी अराजकता होगी, जीना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए शासन की जरूरत है। लेकिन बस एक सीमा तक
शासन चाहता है समाज, व्यक्ति नहीं; समूह, व्यक्ति नही; क्योंकि व्यक्ति होने में ही खतरा है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता की मांग है। व्यक्तित्व की आखिरी गरिमा परिपूर्ण मुक्ति है; और शासन का अर्थ ही बंधन है।
दूसरी बात, जैसे ही शासन बढ़ता है वैसे-वैसे शासन के नीचे दबे लोग दुर्बल होते जाते हैं। शासन का पेट ही नहीं भर पाता; लोगों का पेट कैसे भरे?
इसे हम चिकित्साशास्त्र से आसानी से समझ सकते हैं।
चिकित्सक कहते हैं कि मनुष्य की हड्डियों पर थोड़ी सी चर्बी चाहिए; वह चर्बी हड्डियों की रक्षा करती है। वह चर्बी हड्डियो के आस-पास एक उष्मा, एक गरिमा बनाए रखती है। वह चर्बी जरूरत-गैर-जरूरत के समय, संकट के समय आत्मरक्षा का उपाय है। अगर बहुत दिन भूखा रहना पड़े तो वह चर्बी तुम्हारा भोजन बन जाएगी।
हर आदमी करीब-करीब तीन महीने भूखा रह सकता है इतनी चर्बी उसके शरीर में है। इतना होना जरूरी है, अन्यथा आदमी मुश्किल में होगा। लेकिन फिर ऐसी घटना घटती है कि कुछ लोग रूग्ण हो जाते हैं और चर्बी बढ़ती चली जाती है। फिर चर्बी शरीर को बचाती नहीं, मारती है फिर हड्डियो की सुरक्षा नहीं रहती, हड्डियों को तोड़ने वाला बोझ हो जाती है। फिर हृदय को उतनी चर्बी को खींचना मुश्किल हो जाता है, तो हृदय पर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं। फिर चर्बी इतनी बढ़ जाती है कि मस्तिष्क तक उर्जा नहीं पहुंचती, तो भीतर मस्तिष्क जड़ होने लगता है। ऐसी घटना घट सकती है कि चर्बी इतनी हो जाए कि आदमी हिल-डुल न सके; उसकी गति समाप्त हो जाए; उसका जीवन मृत्यु जैसा हो जाए।

शासन थोड़ा सा जरूरी है। अगर शासन बढ़ता जाए तो वह ऐसा ही है जैसे किसी आदमी की चर्बी बढ़ती जाए। चर्बी एक मात्रा में बचाती है; एक मात्रा के पार जाने पर मारती है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के आगमन के पूर्व बड़े विराट जानवर थे। हाथी उनके समक्ष कुछ भी नहीं। हाथी से दस-दस गुने बड़े जानवर थे। उनके अस्थिपंजर उपलब्ध हैं। हाथी से दस गुना बड़ा जानवर, बड़ा शक्तिशाली जानवर था, लेकिन वह बिल्कुल तिरोहित हो गया। उसका एकमात्र वंशज बची है छिपकली। छिपकली इतनी छोटी सी! वे छिपकलियां थी हाथियों से दस गुनी बड़ी। अचानक वे कैसे विदा हो गई दुनिया से? वैज्ञानिकों ने बहुत खोज करके पाया कि उनकी चर्बी इतनी बढ़ गयी कि उस चर्बी का ढोना मुश्किल हो गया। चर्बी के बोझ के नीचे दब कर ही वे प्राणी मर गए।

शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए; अन्यथा बड़ी अराजकता होगी, जीना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए शासन की जरूरत है। लेकिन बस एक सीमा तक। वहीं तक शासन की जरूरत है जहां तक एक व्यक्ति को दूसरे की जीवन-स्वतंत्रता में बाधा डालने से रोकने की जरूरत है। बस! कोई व्यक्ति किसी के जीवन में बाधा न डाले, इतने दूर तक शासन का काम है।
लेकिन यह तो निषेधात्मक काम हुआ कि तुम लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करने को नियत किये गए थे उनके अपशोषक हो जाते हैं। शासन छाती पर बैठ जाता है; प्रजा सिकुड़ती चली जाती है। धीरे-धीरे प्रजा का सब मांस खो जाता है, अस्थियां शेष रह जाती हैं-अस्थिपंजर!
ऐसी क्षणों में बगावत होनी स्वाभाविक है। लोग उपद्रवी हो जाएंगे। अगर लोग उपद्रवी हैं तो उसका अर्थ इतना ही है कि शासन लोगों के ऊपर अधिक भार की तरह हो गए हैं। कर बढ़ते जाते हैं, टैक्सेशन बढ़ता जाता है; नियम बढ़ते जाते हैं; स्वतंत्रता कम होती जाती है। तुम्हारे चारों तरफ लोहे की दीवाल बन जाती है नियमों की, हिलना-डुलना मुश्किल हो जाता है। और इस सबको भी लोग बरदाश्त कर लें; पेट भी भूखा होने लगता है। जीवन नीचे गिरने लगता है; जरूरत की चीजें भी उपलब्ध नहीं होतीं। लोग मरते हैं, और शासन लोगों की मृत्यु से भी जीने की कोशिश करता है। ऐसी घड़ी में बगावत स्वाभाविक है, लोग उपद्रवी हो जाएंगे। और कोई न कोई उपद्रवी लोगों को भड़काने के लिए तैयार मिल जाएगा।

लोग स्वयं उपद्रवी नहीं है; लोग बड़े शांत हैं। लोगों की क्षमता अपार है। लोग कितना बरदाश्त करते हैं, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लोगों ने सदियों तक बरदाश्त किया है; सब तरह की तकलीफ झेल ली है। क्योंकि उपद्रव में उतरने का अर्थ होता है, अपने को भी उपद्रव में डालना। लोग चाहते नहीं कि उपद्रव हो। लेकिन एक ऐसी घड़ी आ जाती है संकट की जब कि जीवन में कोई अर्थ नहीं रह जाता, जीना ही मुश्किल हो जाता है। उस अंतिम घड़ी में, मरता क्या न करता; उस घडी में ही लोग उपद्रव के लिए राजी होते हैं, और तब भी लोग राजी होते हैं, ऐसा कहना कठिन है; जब जो लोग शासन में है, उनके विरोधी लोग जो शासन में नहीं हैं, वे लोगों को राजी करते हैं।

लोगों ने अब तक कोई क्रांति नहीं की। लोगों का संतोष अपार है। लोग सब तरह की कठिनाइयां बरदाश्त करके चुपचाप जी लेना चाहते हैं। क्योंकि जीने में इतना रस है कि कौन उसे उपद्रव में डाले। लेकिन जब जीना मुश्किल ही हो जाए, रोटी भी उपलब्ध न हो, पानी भी उपलब्ध न हो; तब समझो कि लोग भूख, पीड़ा में सूख गए होते हैं, सूखा ईंधन हो गए होते हैं, तब कोई उपद्रवी, जो शासन-सत्ता में होना चाहता है और नहीं हो पाया, वह जरा सी चिनगारी लगा दे, जरा सी चकमक चला दे बगावत की, कि फिर दावानल उठ जाता है। भूख आग बन जाती है। सभी क्रांतिया भूख से पैदा होती है। लोग मरने की हालत में हो जाते हैं, तभी लड़ने को तैयार होते हैं। अन्यथा लोग धरती जैसे हैं-सब सहते हैं।
ओशो
पुस्तकः ताओ उपनिषद भाग-6
प्रवचन माला 119 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री एवं पुस्तक में उपलब्ध है




संत कवि जगजीवन
‘‘जगजीवन जैसे बेपढ़े-लिखे संतों की वाणी में जो बल है वह बल शब्दों का नहीं है, वह उनके शून्य का बल है। शब्दों की सपंदा उनके पास बड़ी नहीं है, कामचलाऊं हैं; बोल-चाल की भाषा है। लेकिन बोल-चाल की भाषा में भी अमृत ढाला है’’
-ओशो
छोटा बच्चा था न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे कहता हूं की अकसर सीधे सरल लोगों को जो बात सुगमता से घट जाती है। वही बात जो बुद्धि से बहुत भर गए हैं और इरछे तिरछे हो गए हैं उनको बड़ी कठिनाई से घटती है। युगपत क्रांति हो गई। जिसको झेन फकीर सडन इनलाइटमेंट कहते हैं, एक क्षण में बात हो गई ऐसी जगजीवन को हुई।

प्यास, त्वरा, तीव्रता, अभीप्सा-पद शब्दों को याद रखो। कुतूहल से नहीं होगा कि चलो देखें, क्या होता है अगर गुरु सर पर हाथ रखे। कुछ भी नहीं होगा। और जब कुछ भी नहीं होगा तो कहोगे कि सब फिजूल है। जिज्ञासा से रखने कि शायद कुछ हो, तो भी नहीं होगा। जब तक कि अभीप्सा से न रखो। होना ही है, हुआ ही है इधर हाथ छुआ कि वहां हो जाना है-ऐसी श्रद्धा से मांगो तो जरुर होता है, निश्चित हो जाता है। सदा हुआ है। इस जगत के शाश्वत नियमों में से एक नियम है कि जो पूर्णता से प्यासा होगा उसकी प्रार्थना सुन ली जाती है। उसकी प्रार्थना पहुंच जाती है।

उस दिन बुल्लेशाह ने ही हांथ नहीं रखा जगजीवन पर, बुल्लेशाह के माध्यम से परमात्मा का हाथ जगजीवन के सिर पर आ गया। टटोल तो रहा था, तलाश तो रहा था। बच्चे की ही तलाश थी-निर्बोध थी, अबोध थी लेकिन प्रकृति से झलकें मिलनी शुरू हो गई थीं। कोई रहस्य आवेषित किए है सब तरफ से इसकी प्रतीति होने लगी थी, इसके आभास शुरू हो गए थे।

आज जो अचेतन में जगी हुई बात थी, चेतन हो गई। जो भीतर पक रही थी आज उभर आयी। जो कल तक कली थी, बुल्लेशाह के हाथ रखते ही फूल हो गई। रूपांतरण क्षण में हो गया। जगजीवन ने फिर कोई साधना इत्यादि नहीं की। बुल्लेशाह से इतनी ही प्रार्थना की, कुछ प्रतीक दे जाएं। याद आएगी बहुत, स्मरण होगा बहुत। कुछ और तो न था, बुल्लेशाह ने अपने हुक्के में से एक सूत का धागा खोल लिया-काला धागा, वह दायें हांथ पर बांध दिया जगजीवन के। और गोविन्दशाह ने भी अपने हुक्के में से एक धागा खोला-सफेद धागा और वह भी दायें हाथ पर बांध दिया।

जगजीवन को मानने वाले लोग जो सत्यनामी कहलाते हैं-थोड़े से लोग हैं-वे अभी भी अपने दायें हाथ पर काला और बायें पर सफेद धागा बांधते हैं। मगर उसमें अब कुछ सार नहीं है। वह तो बुल्लेशाह ने बांधा तो सार था। कुछ काले सफेद धागे में रखा है क्या? कितने ही बांध लो, उनसे कुछ होनेवाला नहीं है। वह तो जगजीवन ने मांगा था, उसमे कुछ था। और बुल्लेशाह ने बांधा था उसमे कुछ था। न तो जगजीवन हो, न बांधनेवाला बुल्लेशाह है। बांधते रहो।

इस तरह मुर्दा प्रतीक हाथ में रह जाते हैं। कुछ और नहीं था तो धागा ही बांध दिया। और कुछ पास था भी नहीं। हुक्का ही रखते बुल्लेशाह, और कुछ पास रखते भी नहीं थे। लेकिन बुल्लेशाह जैसा आदमी अगर हुक्के का धागा भी बांध दे तो रक्षाबंधन हो गया। उसके हाथ से छूकर साधारण धागा भी असाधारण हो जाता है।

और प्रतीक भी था। गोविन्द्शाह ने सफेद धागा बांध दिया, बुल्लेशाह ने काला धागा बांध दिया। मतलब? मतलब कि काले और सफेद दोनों ही बंधन हैं। पाप भी बंधन है, पुण्य भी बंधन है। शुभ भी बंधन है, अशुभ भी बंधन है। यह बुल्लेशाह कि देशना थी। यह उनका मौलिक जीवन-मंत्र था।

अच्छा तो बांध लेता है, जैसे बुरा बांधता है। नरक भी बांधता है, स्वर्ग भी बांधता है। इसलिए तुम बुरे से तो छूट ही जाना, अच्छे से भी छूट जाना। न तो बुरे के साथ तादात्य करना, न अच्छे के साथ तादात्य करना। तादात्य ही न करना। तुम तो साक्षी मानना अपने को कि मैं दोनों का द्रष्टा हूं। लोहे कि जंजीरे बांधती हैं सोने की जंजीरे भी बांध लेती हैं। जिसको तुम पापी कहते हो वह भी कारागृह में है, जिसको तुम पुण्यात्मा कहते हो वह भी कारागृह में है। चैंकोगे तुम।

चोरी तो बांधती ही है, दान भी बांध लेता है। अगर दान में दान की अकड़ है की मैंने दिया-अगर यह भाव है तो तुम बांध गए। जहां ‘मैं’ है वहां बंधन है। अगर दान में यह अकड़ नहीं है की मैंने दिया, परमात्मा का था। उसी ने दिया, उसी ने लिया, तुम बीच में आए ही नहीं, तो दान की तो बात ही छोड़ो, चोरी भी नहीं बांधती। अगर तुम अपने सारे कर्ता-भाव को परमात्मा पर छोड़ दो, फिर कुछ भी नहीं बांधता। फिर तुम नरक में भी रहो, तो मोक्ष में हो। कारागृह में भी स्वतंत्र हो। शरीर में भी जीवनमुक्त हो। लेकिन दोनों के साक्षी बनना।

ऐसा सूक्ष्म सन्देश था उसमें। यह कुछ कहा नहीं गया कहने की जरुरत न थी। वह जो हाथ रखा था गुरु ने और वह जो जीवन ऊर्जा प्रवाहित हुई थी और भीतर जो स्वच्छ स्थिति पैदा हुई थी, उस स्वच्छ स्थिति को कुछ कहने की जरुरत न थी। ये प्रतीक पर्याप्त थे।

उसी दिन से जगजीवन शुभ-अशुभ से मुक्त हो गये। उन्होंने घर भी नहीं छोड़ा। बड़े हुए, पिता ने कहा शादी कर लो, तो शादी भी कर ली। गृहस्थ हो गए। कहां जाना है? भीतर जाना है। बाहर कोई यात्रा नहीं है। काम-धाम में लगे रहे और सबसे पार और अछूते बने रहे जल में कमलवत।

ऐसे गैर पढ़े लिखे लेकिन असाधारण दिव्य पुरूष के वचनों में हम प्रवेश करें।
फिर नजर में फूल महकें दिल में फिर शमाएं जली।
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम।।
जिसके भीतर प्यास है उन्हें तो इस तरह की यात्राओं की बात ही बस पर्याप्त होती है। फिर नजर में फूल महके उनकी आंखे फूलो से भर जाती हैं।
-ओशो
पुस्तकः नाम सुमिर मन बावरे
प्रवचन 1 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 
http://www.oshoworld.com/onlinemaghindi/september12/htm/

http://www.oshoworld.com/?page=5

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