Sunday, December 9, 2012

संन्यासः भगौड़ापन नहीं...अहंकार त्यागने वाले ही महापुरूष होते हैं कर्म कीजिए भाग्य आपका गुलाम बन जाएगा

संन्यासः भगौड़ापन नहीं...
संन्यास का अर्थ ही होता है, अपने अकेलेपन में रस, दूसरे में रस का त्याग
एक युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था। युवक था अभी, बहुत कच्ची उम्र का था। जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था, मां-बाप से ऊब गया था-इकलौता बेटा था। मां-बाप की मौजूदगी धीरे-धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां-बाप का बड़ा मोह था युवक पर, ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे। एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।’ थक गया होगा, घबड़ा गया होगा। 'संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था, लेकिन ये मां-बाप से किसी तरह पिंड छूट जाये। और कोई उपाय नहीं दीखता था। तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की। मां-बाप तो रोने लगे, चिल्लाने-चीखने लगे, यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना। उनका मोह उससे भारी था।
लेकिन जितना उनका मोह, उतना ही वह भागा-भागा रहने लगा। जितने जोर से तुम किसी को पकड़ोगे, उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से भाग गया। दूर कहीं जहां बुद्ध विहार करते थे उसने जाकर दीक्षा भी ले ली, भिक्षु हो गया। बाप ने बड़ी खोजबीन की, सब जगह खोजा, फिर उसे याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी-कभी बात करता था कि संन्यस्त हो जाऊंगा, तो वह बुद्ध की तलाश में गया। मिल गया बेटा वहां। बाप ने तो बहुत रोना-धोना किया, छाती पीटी, कपड़े फाड़ डाले, लोटा जमीन पर। लेकिन बेटा, जितना बाप रोया-चिल्लाया उतना ही मजबूती से जिद्द बांध लिया कि मैं यहां से जाऊंगा नहीं।
आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्षु हो गया’। बेटे को छोड़ तो सकता नही था, तो उसने भी संन्यास ले लिया। 'फिर उसकी पत्नी और बेटे की मां, वह कुछ दिन तक तो राह देखी, बाप घर लौटा नहीं, तो वह उसकी तलाश में निकली। उसे भी खयाल आया कि बेटा कभी-कभी कहता था भिक्षु हो जाऊंगा, कहीं भिक्षु न हो गया हो। वह वहां पहुंची तो वह देखकर चकित रह गयी-बेटा ही भिक्षु नहीं हो गया है, बाप भी भिक्षु हो गया है! वह बहुत रोयी, पीटी, चिल्लायी, लोटी, बड़ा शोरगुल मचाया, बड़ी भीड़ जमा कर ली। बाप तो जाने को राजी था, लेकिन वह बेटा कहे कि मैं जा नहीं सकता। आखिर कोई और उपाय न था तो मां भी दीक्षित हो गयी।’ वे तीनों संन्यासी हो गये।
अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस न था, घर में विरस था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना देना नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता था। स्वभावतः पत्नी कहां जाए! तो वह भी संन्यस्त हो गयी थी।
'वे तीनों साथ ही बने रहते। वे साथ ही साथ डोलते, साथ ही साथ बैठते, साथ ही साथ भिक्षा मांगने को जाते, साथ ही साथ बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान, न धर्म, न साधना, न कोई सिद्धि, इससे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं था। बुद्ध के वचन भी सुनने न जाते। और बुद्ध के वचन सुनने न जाते-उन्हें लेना-देना क्या था।
भिक्षु और भिक्षुणियां उनसे परेशान होने लगे। यह अजीब सा ही जमघट हो गया इन तीन का! इन्होंने तो एक परिवार बना लिया वहां। आखिर बात बुद्ध तक पहुंची। बुद्ध ने उन्हें बुलाया और उनसे पूछा...देखा बुद्ध ने, सारी बात साफ हो गयी। बेटा सिर्फ भागने के लिए संन्यास ले लिया, घर में स्वतंत्रता न थी।’ सभी बेटे स्वतंत्रता चाहते हैं। किसी भी भांति स्वतंत्रता चाहिए। तो संन्यास ले लिया था कि इस भांति मुक्त हो जाएगा। 'बाप और मां सिर्फ बेटे के पास ही बनें रहे, यह साथ कभी न छूटे, इस मोह में संन्यस्त हो गये थे। बुद्ध ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो! यह कैसा संन्यास! संन्यास का अर्थ ही होता है, अपने अकेलेपन में रस, दूसरे में रस का त्याग।’
-ओशो
'एस धम्मो सनंतनो' पुस्तक की
प्रवचन माला से संकलित एक अंश
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 


शिक्षक की भूमिका...
जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कंपेयर करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे
शिक्षक बुनियादी रुप से इस जगत में सबसे बड़ा विद्रोही व्यक्ति होना चाहिए। तब वह पीढ़ियों को आगे ले जायेगा। और शिक्षक सबसे बड़ा दकियानूस है, सबसे बड़ा ट्रेडीशनलिस्ट वही है, वही दोहराये जाता है पुराने कचरे को। क्रांति शिक्षक में होती नहीं है। आपने सुना है कि कोई शिक्षक क्रांतिपूर्ण हो। शिक्षक सबसे ज्यादा दकियानूस, सबसे ज्यादा आर्थोडॉक्स है, इसलिए शिक्षक सबसे खतरनाक है। समाज उससे हित नहीं पाता है, अहित पाता है। शिक्षक होना चाहिए विद्रोही-कौन-सा विद्रोही? मकान में आग लगा दें आप, या कुछ और कर दें या जाकर ट्रेन उलट दें या बसों में आग लगा दें, मैं उनको नहीं कह रहा हूँ, गलती से वैसा न समझ लें। मैं कह रहा हूँ कि हमारी जो वैल्यूज हैं उनके बाबत विद्रोह का रुख, विचार का रुख होना चाहिए कि यह मामला क्या है।
जब आप एक बच्चे को कहते हैं कि तुम गधे हो, तुम नासमझ हो, तुम बुद्धिहीन हो, देखो उस दूसरे को, वह कितना आगे है, तब आप विचार करें कि यह कितने दूर तक ठीक है और कितने दूर तक सच है! क्या दुनिया में दो आदमी एक जैसे हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि जिसको आप गधा कह रहे हैं वह वैसा हो जायेगा जैसा कि आगे खड़ा है। क्या यह आज तक संभव है? हर आदमी जैसा है, अपने जैसा है, दूसरे आदमी से कंपेरीजन का कोई सवाल ही नहीं। किसी दूसरे आदमी से उसकी कोई कंपेरीजन नहीं उसकी कोई तुलना नही।

एक छोटा कंकड़ है, वह छोटा कंकड़ है, एक बड़ा कंकड़ है, वह बड़ा कंकड़ है, एक छोटा पौधा है, वह छोटा पौधा है, एक बड़ा पौधा है, वह बड़ा पौधा है! एक घास का फूल है, वह घास का फूल है, एक गुलाब का फूल है, वह गुलाब का फूल है! प्रकृति का जहां तक संबंध है, घास के फूल पर प्रकृति नाराज नहीं है और गुलाब के फूल पर प्रसन्न नहीं है। घास के फूल को भी प्राण देती है उतनी खुशी से जितनी गुलाब के फूल को देती है। और मनुष्य को हटा दें तो घास के फूल और गुलाब के फूल में कौन छोटा कौन बड़ा है? कोई छोटा और बड़ा नहीं है! घास का तिनका और बड़ा भरी चीड़ का दरख्त तो यह महान है और घास का तिनका छोटा है? तो परमात्मा कभी का घास के तिनके को समाप्त कर देता और चीड़-चीड़ के दरख्त रह जाते दुनिया में। नहीं लेकिन आदमी की वैल्यूज गलत हैं।
यह आप स्मरण रखें कि इस संबंध में मैं आपसे कुछ गहरी बात कहने का विचार रखता हूं। वह यह कि जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कंपेयर करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने कि इच्छा पैदा करते हैं, जब कि कोई आदमी न तो दूसरे जैसा बना है और न बन सकता है।
राम को मरे कितने दिन हो गये, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गये, दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता और हजारो हजारो क्रिश्चियन कोशिश में तो चौबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जायें। हजारों राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन, महावीर, बुद्ध बनने की कोशिश में हैं, लेकिन बनते क्यों नहीं एकाध? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर क्यों नहीं पैदा होता? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी? मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं, जो रामलीला में बनते हैं राम। न आप यह समझ लें कि उनकी चर्चा कर रह हूं। वैसे तो कई लोग राम बन जाते हैं, कई लोग बुद्ध जैसे कपडे लपेट लेते हैं और बुद्ध बन जाते हैं। कई लोग महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेते हैं या नंगा हो जाते हैं और महावीर बन जाते हैं। मैं उनकी बात नहीं कर रहा। वे सब रामलीला के राम हैं, उनको छोड़ दें। लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है?
यह आपको ज़िन्दगी में भी पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कोई हो सकता है? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है-यहां हर चीज यूनिक है और हर चीज अद्वितीय है। और जब तक हम प्रत्येक कि अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं देंगे तब तक दुनिया में प्रतियोगिता, रहेगी प्रतिस्पर्धा रहेगी, तब तक मारकाट रहेगी, तब तक दुनिया में हिंसा रहेगी, तब तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय से आदमी आगे होना चाहेगा, दूसरे जैसा होना चाहेगा। जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है तो क्या होता है? फल यह होता है-अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाये या बड़े बड़े शिक्षक वहां पहुंच जायें और उनको समझायें कि देखो, चमेली का फूल चंपा जैसा हो जाये, और चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि देखो जूही कितनी सुंदर है, और सब फूलों में पागलपन आ जाए, और चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि देखो, जूही कितनी सुंदर है, और सब फूलों में पागलपन आ जाए, हालांकि आ नहीं सकता!
क्योंकि आदमी से पागल फूल नहीं है। आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें नहीं है कि वे चक्कर में पड जायें। शिक्षकों के उपदेशकों के, संन्यासियों के, आदर्शवादियों के, साधुओं के चक्कर में कोई फूल नहीं पड़ेगा। लेकिन फिर भी समझ लें और कल्पना कर लें कि कोई आदमी जाये और समझाए उनको तथा वे चक्कर में आ जायें और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे तो क्या होगा उस बगिया में। उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं हो सकते, उस बगिया में फिर पौधे मुरझा जायेंगे। क्यों क्योंकि चंपा लाख उपाय करे तो चमेली तो नहीं हो सकती, वह उसके स्वाभाव में नही है, वह उसके व्यक्तित्व में नहीं है, वह उसकी प्रकृति में नहीं है। चमेली तो चंपा हो ही नहीं सकती। लेकिन क्या होगा? चमेली चंपा होने की कोशिश में चमेली भी नहीं हो पाएगी। वह जो हो सकती थी उससे भी वंचित हो जाएगी।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य हुआ है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य और अभिशाप जो मनुष्य के साथ हुआ है वह यह कि हर आदमी किसी और जैसा होना चाह रहा है और कौन सिखा रहा है यह? यह षड्यंत्र कौन कर रहा है यह हजार हजार साल से शिक्षा कर रही है। वह कह रही है राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। यह अगर पुरानी तस्वीर फीकी पड़ गयी, तो गांधी जैसे बनो, विनोबा जैसे बनो। किसी न किसी जैसा बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी न करना क्योंकि तुम तो बेकार पैदा हुए हो। असल में तो गांधी मतलब से पैदा हुए। भगवान ने भूल की जो आपको पैदा किया। क्योंकि अगर भगवान समझदार होता तो राम और बुद्ध ऐसे कोई दस पंद्रह आदमी के टाइप पैदा कर देता दुनिया में। या कि बहुत ही समझदार होता, जैसा कि सभी धर्मो के लोग बहुत ही समझदार होते हैं, तो फिर एक ही तरह के टाइप पैदा कर देता। फिर क्या होता?

अगर दुनिया में समझ लें कि तीन अरब राम ही राम हैं तो कितनी देर चलेगी दुनिया? पंद्रह मिनट ने स्युसाइड हो जायेगा। साऱी दुनिया आत्मघात कर लेगी। इतनी बोरडम पैदा होगी राम ही को देखने से। सब मर जाएगा, कभी सोचा है? सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जायें और सारे पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें तो क्या होगा? फूल देखने लायक भी नहीं रह जायेंगे। उनकी तरफ आंख करने कि भी जरुरत नहीं रह जाएगी। यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का पाना व्यक्तित्व होता है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और कंपेरिज़न, कि कोई ऊंचा है कोई नीचा है, नासमझी कि बात है। कोई ऊंचा और नीचा नहीं है-प्रत्येक है! प्रत्येक व्यक्ति अपनी जगह है और प्रत्येक व्यक्ति दूसरा अपनी जगह पर। नीचे ऊंचे की बात गलत है। सब तरह का वैल्युएशन गलत है। लेकिन हम यह सिखाते रहे हैं।
विद्रोह से मेरा मतलब है, इस तरह की सारी बातों पर विचार, इस तरह की सारी बातों पर विवेक, इस तरह की एक एक बात को देखना की मैं क्या सिखा रहा हूं इन बच्चों को। जहर तो नहीं पिला रहा हूं? बड़े प्रेम से भी जहर पिलाया जा सकता है और बड़े प्रेम से मां-बाप और शिक्षक जहर पिलाते रहे हैं, लेकिन यह टूटना चाहिए।
-ओशो
पुस्तकः शिक्षा में क्रांति प्रवचन के अंश से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 

 

जो हो रहा है उसके जिम्मेदार हम खुद हैं

राकेश/इंटरनेट डेस्क | Last updated on: October 30, 2012 1:05 PM IST
हम मनुष्यों की एक सामान्य सी आदत है कि दुःख की घड़ी में विचलित हो उठते हैं और परिस्थितियों का कसूरवार भगवान को मान लेते हैं। भगवान को कोसते रहते हैं कि 'हे भगवान हमने आपका क्या बिगाड़ा जो हमें यह दिन देखना पड़ रहा है।' गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि जीव बार-बार अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग योनी और शरीर प्राप्त करता है।

यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक जीवात्मा परमात्मा से साक्षात्कार नहीं कर लेता। इसलिए जो कुछ भी संसार में होता है या व्यक्ति के साथ घटित होता है उसका जिम्मेदार जीव खुद होता है। संसार में कुछ भी अपने आप नहीं होता है। हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है वह कर्मों का फल है। इश्वर तो कमल के फूल के समान है जो संसार में होते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होता है। ईश्वर न तो किसी को दुःख देता है और न सुख। 

इस संदर्भ में एक कथा प्रस्तुत हैः गौतमी नामक एक वृद्धा ब्राह्मणी थी। जिसका एक मात्र सहारा उसका पुत्र था। ब्राह्मणी अपने पुत्र से अत्यंत स्नेह करती थी। एक दिन एक सर्प ने ब्राह्मणी के पुत्र को डंस लिया। पुत्र की मृत्यु से ब्रह्मणी व्याकुल होकर विलाप करने लगी। पुत्र को डंसने वाले सांप के ऊपर उसे बहुत क्रोध आ रहा था। सर्प को सजा देने के लिए ब्राह्मणी ने एक सपेरे को बुलाया। सपेरे ने सांप को पकड़ कर ब्राह्मणी के सामने लाकर कहा कि इसी सांप ने तुम्हारे पुत्र को डंसा है, इसे मार दो।

ब्राह्मणी ने संपरे से कहा कि इसे मारने से मेरा पुत्र जीवित नहीं होगा। सांप को तुम्ही ले जाओ और जो उचित समझो सो करो। संपेरा सांप को जंगल में ले आया। सांप को मारने के लिए संपेरे ने जैसे ही पत्थर उठाया, सांप ने कहा मुझे क्यों मारते हो, मैंने तो वही किया जो काल ने कहा था। संपेरे ने काल को ढूंढा और बोला तुमने सर्प को ब्राह्मणी के बच्चे को डंसने के लिए क्यों कहा। काल ने कहा 'ब्राह्मणी के पुत्र का कर्म फल यही था।' मेरा कोई कसूर नहीं है।

सपेरा कर्म के पहुंचा और पूछा तुमने ऐसा बुरा कर्म क्यों किया। कर्म ने कहा 'मुझ से क्यों पूछते हो, यह तो मरने वाले से पूछो' मैं तो जड़ हूं। इसके बाद संपेरा ब्राह्मणी के पुत्र की आत्मा के पास पहुंचा। आत्मा ने कहा सभी ठीक कहते हैं। मैंने ही वह कर्म किया था जिसकी वजह से मुझे सर्प ने डंसा, इसके लिए कोई अन्य दोषी नहीं है।

महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने भीष्म को बाणों से छलनी कर दिया और भीष्म पितामह को बाणों की शैय्या पर सोना पड़ा। इसके पीछे भी भीष्म पितामह के कर्म का फल ही था। बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म ने जब श्री कृष्ण से पूछा, किस अपराध के कारण मुझे इसे तरह बाणों की शैय्या पर सोना पड़ रहा है। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने कहा था कि, आपने कई जन्म पहले एक सर्प को नागफनी के कांटों पर फेंक दिया था। इसी अपराध के कारण आपको बाणों की शैय्या मिली है।

इसलिए कभी भी जाने-अनजाने किसी भी जीव को नहीं सताना चाहिए। हम जैसा कर्म करते हैं उसका फल हमें कभी न कभी जरूर मिलता है।

 

 

 

 

अहंकार त्यागने वाले ही महापुरूष होते हैं

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 22, 2012 4:22 PM IST
बहुत से लोग दिन-रात प्रयास करते हैं कि उन्हें किसी तरह उच्च पद मिल जाए। खूब सारा पैसा हो और आराम की जिन्दगी जियें। जब ये सब प्राप्त हो जाता है तो इसे ईश्वर की कृपा मानने की बजाय अपनी काबिलियत और धन पर इतराने लगते हैं। जबकि संसार में किसी चीज की कमी नहीं है। अगर आप धन का अभिमान करते हैं तो देखिए आपसे धनवान भी कोई अन्य है। विद्या का अभिमान है तो ढूंढ़कर देखिए आपसे भी विद्वान मिल जाएगा। इसलिए किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए। जो लोग अहंकार त्याग देते हैं वही महापुरूष कहलाते हैं।

महाभारत में कथा है कि दुर्योधन के उत्तम भोजन के आग्रह को ठुकरा कर भगवान श्री कृष्ण ने महात्मा विदुर के घर साग खाया। भगवान श्री कृष्ण के पास भला किस चीज की कमी थी। अगर उनमें अहंकार होता तो विदुर के घर साग खाने की बजाय दुर्योधन के महल में उत्तम भोजन ग्रहण करते लेकिन श्री कृष्ण ने ऐसा नहीं किया।

भगवान श्री राम ने शबरी के जूठे बेर खाये जबकि लक्ष्मण जी ने जूठे बेर फेंक दिये। यहीं पर राम भगवान की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि उनमें भक्त के प्रति अगाध प्रेम है, वह भक्त की भावना को समझते हैं और उसी से तृप्त हो जाते हैं। अहंकार उन्हें नहीं छूता है, वह ऊंच-नीच, जूठा भोजन एवं छप्पन भोग में कोई भेद नहीं करते। शास्त्रों में भगवान का यही स्वभाव और गुण बताया गया है।

महात्मा बुद्घ से संबंधित एक कथा है कि एक बार महात्मा बुद्घ किसी गांव में प्रवचन दे रहे थे। एक कृषक को उपदेश सुनने की बड़ी इच्छा हुई लेकिन उसी दिन उसका बैल खो गया था। इसलिए वह महात्मा बुद्घ के चरण छू कर सभा से वापस बैल ढूंढने चला गया। शाम होने पर कृषक बैल ढूंढ़कर वापस लौटा तो देखा कि बुद्घ अब भी सभा को संबोधित कर रहे हैं।

भूखा प्यासा किसान फिर से बुद्घ के चरण छूकर प्रवचन सुनने बैठ गया। बुद्घ ने किसान की हालत देखी तो उसे भोजन कराया, फिर उपदेश देना शुरू किया। बुद्घ का यह व्यवहार बताता है कि महात्मा बुद्घ अहंकार पर विजय प्राप्त कर चुके थे। बुद्घ के अंदर अहंकार होता तो किसान पर नाराज होते क्योंकि बैल को ढूंढ़ने के लिए किसान ने बुद्घ के प्रवचन को छोड़ दिया था। शास्त्रों में अहंकार को नाश का कारण बताया गया है इसलिए मनुष्य को कभी भी किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए। 



कर्म कीजिए भाग्य आपका गुलाम बन जाएगा

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: December 5, 2012 2:54 PM IST
बहुत से लोग इस बात का रोना रोते रहते हैं कि उनका भाग्य ही खराब है। नसीब नहीं साथ दे रहा है इसलिए किसी काम में सफलता नहीं मिलती है। जबकि सच यह है कि भाग्य तो कर्म के अधीन है। हाथ की लकीरों में अपने भाग्य को ढूंढने की बजाय अगर हम हाथों को कर्म करने के लिए प्रेरित करें तो भाग्य रेखा खुद ही मजबूत हो जाएगी और हम वह पा सकेंगे जिसकी हम चाहत रखते हैं।

कर्म के अनुसार बदलती हैं रेखा
हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार कुछ रेखाओं को छोड़ दें तो बाकी सभी रेखाएं कर्म के अनुसार बदलती रहती है। अपनी हथेली को गौर से देखिए कुछ समय बाद रेखाओं में कुछ न कुछ बदलाव जरूर दिखेगा इसलिए कहा गया है कि रेखाओं से किस्मत नहीं कर्म से रेखाएं बदलती हैं।

सकल पदारथ एहि जग माहिगोस्वामी तुलसीदास जी कर्म के मर्म को बखूबी जानते थे तभी उन्होंने कहा है "सकल पदारथ एहि जग माहिं। कर्महीन नर पावत नाहिं।।" तुलसीदास जी ने अपनी दोहा में स्पष्ट किया है कि इस संसार में सभी कुछ है जिसे हम पाना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन जो कर्महीन अर्थात प्रयास नहीं करते इच्छित चीजों को पाने से वंचित रह जाते हैं।

सिंह को भी आलस्य त्यागना होगा
नीतिशास्त्र में कहा गया है कि 'न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥" इसका तात्पर्य यह है कि सिंह अगर शिकार करने न जाए और सोया रहे तो मृग स्वयं ही उसके मुख में नहीं चला जाएगा। यानी सिंह को अपनी भूख मिटानी है तो उसे आलस त्यागकर मृग का शिकार करना ही पड़ेगा।

इसी प्रकार हम सभी को जिस चीज की, जिस मंजिल की तलाश है उसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रयास का फल देर से मिल सकता है लेकिन परिणाम आपके पक्ष में होगा यह मानकर सही दिशा में प्रयास करते रहना चाहिए।

पृथ्वी यानी कर्म की भूमि
शास्त्रों में पृथ्वी को कर्म भूमि कहा गया है। यहां आप जैसे कर्म करते हैं उसी के अनुरूप आपको फल मिलता है। भगवान श्री कृष्ण ने ही गीता में कर्म को ही प्रधान बताया है और कहा है कि हम मनुष्य के हाथों में मात्र कर्म है अतः हमें यही करना चाहिए।

फल क्या होगा वह हमें भगवान पर छोड़ देना चाहिए। भगवान अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करते हैं इसलिए जो जैसा कर्म करता है उसे उसका उसे वैसा ही फल देते हैं। सीधी बात यह है कि 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा।' अर्थात जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता हैं।
 
 
 

छठ पर्व सिखाता है बुजुर्गों की सेवा करना

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 19, 2012 3:04 PM IST
छठ पर्व को अगर हम धार्मिक दृष्टि से हटकर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो छठ पर्व हमें जीवन का एक बड़ा रहस्य समझाता है। छठ पर्व के नियम पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि छठ पर्व में षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते हुए सूर्य की पूजा करके उन्हें फल एवं पकवानों का अर्घ्य दिया जाता है। जबकि सप्तमी तिथि को उदय कालीन सूर्य की पूजा होती है।

दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है। वेद पुराणों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवतः इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।

जैन गुरू आचार्य पुलक सागर जी ने कहा है दुनिया में ऐसा कोई भी नही है जो सदैव युवा रहे। राम, कृष्ण, महावीर सभी को बुढ़ापा आया। एक दिन हर बच्चा जवान होगा और हर जवान बूढ़ा। इसलिए किसी बुजुर्ग का अनादर नहीं करना चाहिए। हम सभी को यह समझना चाहिए कि बुढापा जीवन का एक सुनहरा अध्याय है। बूढा आदमी दुनिया का सबसे बडा विश्वविद्यालय है। बूढे की एक एक झुर्रियों में जीवन के हजार-हजार अनुभव लिखे होते हैं।
 
 
 

तीर्थों में भटकने से ईश्वर नहीं मिलता

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 2, 2012 1:37 PM IST
बहुत से लोग एक एक पैसा जोड़कर तीर्थयात्रा की योजना बनाते रहते हैं। इस कारण से वे अपने व्यक्तिगत जीवन की बहुत सी खुशियों की आहुति भी दे देते हैं। लेकिन सोच कर देखिए क्या ईश्वर तीर्थयात्रा करने से प्राप्त हो जाता है। जब आप अपनी छोटी-छोटी खुशियों को मार कर तीर्थयात्रा के लिए धन जमा करते हैं तो ईश्वर को खुशी होती है। आपका अंतर्मन जवाब देगा नहीं‍।

कबीर दास जी ने कहा है 'कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूंढे बन माही, ऐसे, घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि'। तीर्थों में ईश्वर को ढूंढने वाले लोगों के लिए ही संत कबीर ने ऐसा कहा है। कबीरदास जी समझाते हैं कि कस्तूरी मृग जिस तरह अपने अंदर छुपी कस्तूरी को जान नहीं पाता है और कस्तूरी की सुंगध की ओर आकर्षित होकर वन में भटकता रहता है। हम मनुष्य भी ऐसे ही अज्ञानी हैं। ईश्वर हमारे अंदर बसा होता है और उसे मन में तलाशने की बजाय दूर पहाड़ों और जंगलों में ढूंढते फिरते हैं।

अपने एक अन्य दोहे में कबीरदास जी ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आपस में किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए। सभी मनुष्य ईश्वर के ही प्रतिबिंब हैं। 'नर नारायण रूप है, तू मति जाने देह। जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह। अर्थात हम जिसे मात्र शरीर मानते है वह तो नारायण का रूप हैं। क्योंकि हर व्यक्ति में आत्म रूप में नारायण बसते हैं। अगर इस रहस्य को समझ सको तो समझ लो अन्यथा जब शरीर नष्ट होगा तो कुछ नहीं बचेगा। तुम मिट्टी में मिल चुके होगे और शेष रहेगा तो सिर्फ आत्मा जो नारायण रूप है।

भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता के दसवें अध्याय में कहा है कि 'अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितिः' हे गुडाकेश अर्जुन, मैं सभी जीवों में आत्मा रूप में विराजमान रहता हूं। गीता के पांचवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कर्मयोग को समझाते हुए कहा है कि 'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषा नाशितमात्मनः। तेषामादित्यावज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। इस श्लोक का तात्पर्य है जो व्यक्ति ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को अपने अंदर जान लेता है उसके सामने परमात्म तत्व सूर्य की रोशनी से जैसे सब कुछ प्रकाशमान हो जाता है उसी प्रकार परमात्मा उसके समाने दृश्यगत होता है अर्थात साक्षात प्रकट रहता है।   
 
 
 
 
 

 
 
 
 
 

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