Sunday, December 9, 2012

मौत पीछा न छोड़ेगी...

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मौत पीछा न छोड़ेगी...
यदि तुम ठीक छाया की ओर बढ़ो, जहां धूप न हो, तो परछाई गायब हो जायेगी क्योंकि परछाई धूप या रोशनी के कारण ही बनती है। वह सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति है। यदि तुम एक वृक्ष की छाया तले बैठ जाओ, तो परछाई लुप्त हो जायेगी...
एक बहुत प्यारी सूफ़ी कहानी हैः

एक बादशाह ने एक दिन सपने में अपनी मौत को आते हुए देखा। उसने सपने में अपने पास खड़ी एक छाया देख, उससे पूछा-'तुम कौन हो? यहां क्यों आयी हो?'

उस छाया या साये ने उत्तर दिया-मैं तुम्हारी मौत हूं और मैं कल सूर्यास्त होते ही तुम्हें लेने तुम्हारे पास आऊंगी।' बादशाह ने उससे पूछना भी चाहा कि क्या बचने का कोई उपाय है, लेकिन वह इतना अधिक डर गया था कि वह उससे कुछ भी न पूछ सका। तभी अचानक सपना टूट गया और वह छाया भी गायब हो गयी। आधी रात को ही उसने अपने सभी अक्लमंद लोगों को बुलाकर पूछा-'इस स्वप्न का क्या मतलब है, यह मुझे खोजकर बताओ।' और जैसा कि तुम जानते ही हो, तुम बुद्धिमान लोगों से अधिक बेवकूफ कोई और खोज ही नहीं सकते। वे सभी लोग भागे-भागे अपने-अपने घर गये और वहां से अपने-अपने शास्त्र साथ लेकर लौटे। वे बड़े-बड़े मोटे पोथे थे। उन लोगों ने उन्हें उलटना-पलटना शुरू कर दिया और फिर उन लोगों में चर्चा-परिचर्चा के दौरान बहस छिड़ गयी। वे अपने-अपने तर्क देते हुए आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे।

उन लोगों की बातें सुनकर बादशाह की उलझन बढ़ती ही जा रही थी। वे किसी एक बात पर सहमत ही नहीं हो पा रहे थे। वे लोग विभिन्न पंथों के थे। जैसा कि बुद्धिमान लोग हमेशा होते हैं, वे स्वयं भी स्वयं के न थे।

वे उन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते थे, जिनकी परम्पराएं मृत हो चुकी थीं। उनमें एक हिन्दू, दूसरा मुसलमान और तीसरा ईसाई था। वे अपने साथ अपने-अपने शास्त्र लाये थे और उन पोथों को उलटते-पलटते, वे बादशाह की समस्या का हल खोजने की कोशिशों पर कोशिशें कर रहे थे। आपस में तर्क-विर्तक करते-करते वे जैसे पागल हो गये। बादशाह बहुत अधिक व्याकुल हो उठा क्योंकि सूरज निकलने लगा था और जिस सूर्य का उदय होता है, वह अस्त भी होता है क्योंकि उगना ही वास्तव में अस्त होना है। अस्त होने की शुरुआत हो चुकी है। यात्रा शुरू हो चुकी थी और सूर्य डूबने में सिर्फ बारह घंटे बचे थे।

उसने उन लोगों को टोकने की कोशिश की, लेकिन उन लोगों ने कहा-'आप कृपया बाधा उत्पन्न न करें। यह एक बहुत गम्भीर मसला है और हम लोग हल निकालकर रहेंगे।'

तभी एक बूढ़ा आदमी-जिसने बादशाह की पूरी उम्र खिदमत की थी-उसके पास आया और उसके कानों में फुसफुसाते हुए कहा-'यह अधिक अच्छा होगा कि आप इस स्थान से कहीं दूर भाग जायें क्योंकि ये लोग कभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे नहीं और तर्क-वितर्क ही करते रहेंगे और मौत आ पहुंचेगी। मेरा आपको यही सुझाव है कि जब मौत ने आपको चेतावनी दी है, तो अच्छा यही है कि कम-से-कम आप इस स्थान से कहीं दूर सभी से पीछा छुड़ाकर चले जाइए। आप कहीं भी जाइयेगा, बहुत तेजी से।' यह सलाह बादशाह को अच्छी लगी-'यह बूढ़ा बिल्कुल ठीक कह रहा है। जब मनुष्य और कुछ नहीं कर सकता, वह भागने का, पीछा छुड़ाकर पलायन करने का प्रयास करता है।'

बादशाह के पास एक बहुत तेज दौड़ने वाला घोड़ा था। उसने घोड़ा मंगाकर बुद्धिमान लोगों से कहा-'मैं तो अब कहीं दूर जा रहा हूं और यदि जीवित लौटा, तो तुम लोग तय कर मुझे अपना निर्णय बतलाना, पर फिलहाल तो मैं अब जा रहा हूं।'

वह बहुत खुश-खुश जितनी तेजी से हो सकता था, घोड़े पर उड़ा चला जा रहा था क्योंकि आखिर यह जीवन और मौत का सवाल था। वह बार-बार पीछे लौट-लौटकर देखता था कि कहीं वह साया तो साथ नहीं आ रहा है, लेकिन वहां स्वप्न वाले साये का दूर-दूर तक पता न था। वह बहुत खुश था, मृत्यु पीछे नहीं आ रही थी और उससे पीछा छुड़ाकर दूर भागा जा रहा था।

अब धीमे-धीमे सूरज डूबने लगा। वह अपनी राजधानी से कई सौ मील दूर आ गया था। आखिर एक बरगद के पेड़ के नीचे उसने अपना घोड़ा रोका। घोड़े से उतरकर उसने उसे धन्यवाद देते हुए कहा-'वह तुम्हीं हो, जिसने मुझे बचा लिया।'

वह घोड़े का शुक्रिया अदा करते हुए यह कह ही रहा था कि तभी अचानक उसने उसी हाथ को महसूस किया, जिसका अनुभव उसने ख्वाब में किया था। उसने पीछे मुड़कर देखा, वही मौत का साया वहां मौजूद था।

मौत ने कहा-'मैं भी तेरे घोड़े का शुक्रिया अदा करती हूं, जो बहुत तेज दौड़ता है। मैं सारे दिन इसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ी तेरा इन्तजार कर रही थी और मैं चिन्तित थी कि तू यहां तक आ भी पायेगा या नहीं क्योंकि फासला बहुत लंबा था। लेकिन तेरा घोड़ा भी वास्तव में कोई चीज है। तू ठीक उसी वक्त पर यहां आ पहुंचा है, जब तेरी जरूरत थी।'

तुम कहां जा रहे हो? तुम कहां पहुंचोगे? सारी भागदौड़ और पलायन आखिर तुम्हें बरगद के पेड़ तक ही ले जायेगी। और जैसे ही तुम अपने घोड़े या कार को धन्यवाद दे रहे होगे, तुम अपने कंधे पर मौत के हाथों का अनुभव करोगे। मौत कहेगी-'मैं एक लम्बे समय से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी। अच्छा हुआ, तुम खुद आ गये।'

और प्रत्येक व्यक्ति ठीक समय पर ही आता है। वह एक क्षण भी नहीं खोता। प्रत्येक व्यक्ति ठीक वक्त पर ही पहुंचता है, कोई भी कभी देर लगाता ही नहीं। मैंने सुना है कि कुछ लोग वक्त से पहले ही पहुंच गये, लेकिन मैंने यह कभी नहीं सुना कि कोई देर से आया हो। कुछ लोग, जो समय से पहले पहुंचे थे, वह लोग अपने चिकित्सकों की मेहरबानी के कारण।
अपनी असफलता की वजह उसने यह ठहराई

कि वह काफी तेजी से नहीं दौड़ रहा था।

इसीलिए वह बिना रुके तेज और तेज दौड़ने लगा।

यहां तक कि अन्त में वह नीचे गिर पड़ा और मर गया।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी छाया बनती ही नहीं

और यदि वह उसके नीचे बैठकर स्थिर हो ठहर गया होता,

तो न पैरों के कदम उठते और उनकी ध्वनि होती।

यह बहुत आसान था-सबसे अधिक आसान।

यदि तुम ठीक छाया की ओर बढ़ो, जहां धूप न हो, तो परछाई गायब हो जायेगी क्योंकि परछाई धूप या रोशनी के कारण ही बनती है। वह सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति है। यदि तुम एक वृक्ष की छाया तले बैठ जाओ, तो परछाई लुप्त हो जायेगी।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी परछाई बनती ही नहीं। वह गायब हो जाती।

इस छांव को कहते है--मौन। इस छांव को कहते हैं-आंतरिक शान्ति। मन की सुनो ही मत, बस केवल मौन की छांव में सरक जाओ, अपने अंदर गहरे में उतर जाओ, जहां सूर्य की कोई किरण प्रविष्ट नहीं हो सकती, जहां परम शान्ति है।
-ओशो
पुस्तकः सत्य-असत्य
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. व पुस्तक में उपलब्ध है










बाल जगत
 
 
कला का इतिहास
"बचपन स्वर्ग जैसा क्यों होता है? क्योंकि बच्चा रहस्य के जगत में जीता है। उसके लिए हर बात रहस्यपूर्ण है। यहां तक कि सूर्य के प्रकाश में झूमते वृक्ष कि छाया भी रहस्यपूर्ण है। काव्यात्मक है। एक साधारण सा फूल, एक घास का फूल भी इतना रहस्यपूर्ण होता है क्योंकि यह पूरे जीवन को अभिव्यक्त करता है। वृक्षों में बहती हवा, उसके गीत, घाटियों का संगीत, पानी में बनने वाले अक्स, हर बात बच्चे के लिए रहस्यपूर्ण है, अज्ञात है। वह प्रसन्न होता है। इसे स्मरण रखो-तुम्हारी प्रसन्नता तुम्हारे रहस्य के अनुपात में होती है। कम रहस्य, कम प्रसन्नता। ज्यादा रहस्य, ज्यादा प्रसन्नता।"
ओशो
शिक्षा ओशो की दृष्टि में
कला मानव मन की ऐसी रचनात्मक अभिव्यक्ति है जिसके माध्यम से वास्तविक और काल्पनिक स्थितियों को चित्रित किया जाता है। उसकी सुदंरता को कैनवास, पेपर, पत्थर और दीवारों पर उकेरा जाता है। आमतौर पर जब हम कला की बात करते हैं तब उसका अभिप्राय, वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला से होता है। कला विश्व की ऐसी कलात्मक और अनूठी पहचान है जिससे किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। कला का कलात्मकता इससे परलक्षित होती है कि कलाकार और हस्तशिल्पी अपनी रचनात्मक अंगुलियों से वही दिखाता है जो वास्तव में सच होता है।

कला की उत्पत्ति के चिन्ह हमें गुफाओं और शिलाखण्डों पर बनी विशेष आकृति में देखने को मिले। कला को वास्तविक और मूर्त रूप कलाकारों की कल्पना ने दिया। जिन्होंने इसको दुनिया के कोने-कोने में पहुंचा दिया। आधुनिक कला को हम मनुष्य की कलापूर्ण प्रवृत्ति का साक्षात् प्रमाण मानते है। जिसकी सुंदरता दुनिया के विभिन्न चित्रकारों ने अपनी कला से प्रकट की है। प्रकृति और कला का नाता बहुत ही प्राचीन है। इनका अस्तित्व ही मनुष्य को जीवंत बनायें हुए है।
कला की शुरुआत कब, कहां और कैसे हुई। इसकी सही और सटीक जानकारी इतिहास के पन्नों पर अंकित नहीं है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि कला, पेंटिग और चित्रकला का विकास लगभग एक सौ हजार साल पुराना है।



आधुनिक कला की शुरुआत विन्सेन्ट वैन गॉग, पॉल सिजैन, पॉल गॉगुइन, जॉर्जेस श्योरा और हेनरी डी टूलूज लॉट्रेक जैसे ऐतिहासिक चित्रकारों ने की। ये सभी आधुनिक कला के विकास को महत्वपूर्ण मानते थे. 20वीं सदी की शुरुआत में हेनरी मैटिस और कई युवा कलाकारों, जिनमें पूर्व-घनवादी जॉर्जेस ब्रैक्यू, आंद्रे डेरैन, रॉल डफी और मौरिस डी व्लामिंक शामिल थे। इनके जीवंत बहु-रंगी, भावनात्मक परिदृश्य और आकार चित्रकला जिसे आलोचकों ने फॉविज्म का नाम दिया। हेनरी मैटिस के द डांस के दो संस्करणों ने उनके करियर और आधुनिक चित्रकला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह मैटिस के परिलक्षित कला के साथ प्रारंभिक आकर्षण को दर्शाता है। नीले-हरे रंग की पृष्ठभूमि पर आकृतियों में उपयोग किए गए बेहतरीन उग्र रंग और नृत्य कलाओं की तालबद्ध प्रस्तुति भावनात्मक और हेडोनिजम की भावनाओं को व्यक्त करता

प्रारंभ में टुलुज लॉट्रेक, गॉगुइन और 19वीं सदी के अन्य नवकलाकारों से प्रभावित पैब्लों पिकासो ने अपने पहले घनवादी पेंटिंग को सीजैन के इस विचार के आधार पर बनाया था कि प्रकृति की सभी कलाकृतियां तीन ठोस आकार घन, गोला और शंकु में समाहित किए जा सकते हैं। लेस डेमोइसेलस डेएविगनन 1907 पेंटिंग के साथ, पिकासो ने नाटकीय रूप से एक नया और स्वाभाविक चित्र बनाया। विश्लेषणात्मक घनवाद को पिकासो और जॉर्जेस ब्राक्यू ने मिलकर विकसित किया था, जिसका उदाहरण हमें 1908 से 1912 के मध्य वायलिन और कैंडलस्टिकग, पेरिस में देखने को मिला।

विश्लेषणात्मक घनवाद, ब्राक्यू, पिकासो, फर्नार्ड लेगर, जुएन ग्रिस, मार्शल डुचैम्प और 1920 के कई अन्य कलाकारों द्वारा किए जाने वाले कृत्रिम घनवाद की पहली स्पष्ट अभिव्यक्ति थी। कृत्रिम घनवाद भिन्न आकृतियों, सतहों, कॉलेज तत्वों, पेपर कॉले और कई मिश्रित विषयों को प्रस्तुत करके चित्रित किया जाता है। आधुनिक कलाकारों ने देखने के नए तरीकों और सामग्रियों और कला के कार्यों की प्रवृति पर नए विचारों के साथ नये और आधुनिकतम प्रयोग किए। साथ ही कल्पनात्मकता की ओर झुकाव आधुनिक कला की विशेष विशेषता रही है।



कला के इतिहास और विकास की यात्राः

32,000 ईसा पूर्व अफ्रीका में पत्थरों पर नक्काशी की कला की शुरुआत हुई। वही इस कला का प्रारंभ भी माना जाता है। इसके अलावा पेन्टिंग कला करने के प्रतीक अफ्रीका और यूरोप की गुफाओं में बड़ी मात्रा में देखने को मिले। आज भी इन देशों की गुफाओं और पहाड़ों में चित्रकला और नक्काशी के अवशेष जीवित हैं। हालांकि उस समय की पेंटिंग में उतना आकर्षण नहीं था जितना आधुनिक युग में होता है। लेकिन उन कलाकारों की कार्यक्षमता के अनुसार यह कला उनके दक्षता और अनुभव को प्रकट करती थी। पेन्टिंग में यह भी साफ झलकता था कि उस समय के जानवर वास्तविकता में कैसे प्रतीत होते थे।

9000 ईसा पूर्व जब लोग खानाबदोश रहने की बजाय गांवों और समूहों में रहने लगे। तब उनके जीवनशैली में आये इस बदलाव ने कला के क्षेत्र में भी चार चांद लगा दिये। एक स्थान पर रहने के कारण उन्होंने अपनी कला से बड़ी-बडी स्थाई मूर्तिया बनानी शुरू कर दिया। जिससे उन्हें बड़ी आकार की मूर्तियां बनाने में भी आसानी होने लगी। पश्चिमी एशिया और इजिप्ट में सबसे पहले मिट्टी और धातु की विशाल मूर्ति बनाई गई। कला में आये इस बदलाव ने मिट्टी के बर्तनों को भी सजावटी आकार प्रदान कर दिया।

3000 ईसा पूर्व के आस-पास लोगों ने धातु की वस्तुओं पर काम करना सीख लिया था। जिसके कारण भारत में पहली धात्विक और सूक्ष्म मूर्ति बनायी गयी। इसी काल में भारत और और ग्रीस के लोगों ने इस क्षेत्र में हाथ अजमाने शुरू कर दिये। उनके बनाये नमूने सुदंरता के कारण जीवंत प्रतीत होते थे।

1100 ईसा पूर्व पश्चिमी एशिया और भूमध्यसागरीय क्षेत्र में ऐसा समय आया जब कला का चमकता सितारा धूमिल होने लगा कारण साफ था कि उस समय लोग कला में इतना माहिर नहीं थे। जिसका सीधा असर कला पर पड़ा और वह अपने अस्तित्व से डगमगाने लगी। कला के इस काले अध्याय के बाद कलाप्रेमियों ने अपने कार्य रूचि से पेन्टिंग में नयी जान फूंक दी।

ग्रीस में प्राचीन और पारंपरिक मूर्तियां बननी शुरू हुई और फूलों के गुलदानों पर लाल और काले रंग की चित्रकारी होने लगी। इटली में, इट्रस्केन लोग पत्थरों और मिट्टी की मूर्तियां बनाने लगे। साथ ही स्वयं के मिट्टी के बर्तनों पर भी चित्रकारी करने लगे। पश्चिमी एशिया के महाराजा ने नक्काशी को अपने महल की दीवारों पर बनवाई थी। ताकि इन कलाओं से उसका महल सुदंरता का आकार ले ले।

325 ईसा पूर्व में जब सिकंदर महान ने पश्चिम एशिया को जीता, तब एक देश से दूसरे देश के बीच में कलात्मक विचारों और कला का विनिमय हुआ। लोगों पूरे साम्राज्य में घूम-घूमकर अपने विचारों और कलाओं का आदान प्रदान किया।

इसका लाभ भारत में दिखा जब आदान-प्रदान के कारण देश में पहली ग्रीक मूर्ति का निर्माण हुआ। ग्रीक की इस तकनीकि का इस्तेमाल करके भारतीय मूर्तिकारों ने बुद्ध की प्रतिमा को बनाया। जिससे बौद्ध धर्म को भी प्रचार के क्षेत्र में एक बल मिला। इसके कुछ समय बाद बौद्धधर्मियों ने चीन की यात्रा शुरू की और वहां से पत्थर की मूर्तियों को अपने साथ ले आये। चीन के कलाकारों ने भी पत्थरों की यथार्थ आकार की मूर्तियों को तराशना शुरू कर दिया। इस तरह से कला के विस्तार ने पूरे विश्व में फैलने की रफ्तार पकड़ ली।

200 ईसा के बाद रोमन चित्रकारों ने अपने काम में नए-नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए। मूर्तियों को इस तरह से तराशने लगे कि वास्तविक और काल्पनिक कला में फर्क करना कठिन हो जाता था। मूर्तियों में बड़े आकार की आंखे होती थी। जो उनकी शक्ति और उर्जा को दर्शाती थी।

450 ईसा में कला के क्षेत्र में एक और काला अध्याय उस समय जुड़ गया जब रोम और सेसेशियन साम्राज्य का पतन होने लगा। लोगों में गरीबी और भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गयी जिसका सीधा प्रभाव मूर्तिकारों और चित्रकारों पर भी पड़ा। वो अपनी कला की गाड़ी का पहिया आगे खींचनें में असमर्थ हो गये। कुछ सालों तक इस क्षेत्र में कोई उन्नति देखने को नहीं मिली। लेकिन दूसरी तरफ चीन में कला ने तेजी से अपनी जड़े फैलानी शुरू कर दी, कलाकरों ने अपनी चित्रकारी और पेंटिग का हुनर, नये आविष्कार हुए कागजों पर करना प्रारंभ कर करने लगे थे।

जब पश्चिमी कलाकारों ने दोबारा कला में हाथ अजमाने शुरू किये। तब उन्होंने अपने काम में नित नये प्रयोग किये। मध्यकालीन कला में इस्लाम और ईसाई धर्मों का अहम योगदान देखने को मिला।

शुरुआत में मध्यकालीन या रोम के पुराने कलाकारों को लोगों और मकानों की आकृतियों के प्रतीकात्मक और साहसिक भावनाओं वाले चित्र बनाना अधिक पसंद था। लेकिन इस युग के बाद के कलाकार गिओटटो और डोनाटेल्लो ने नवीन मध्यकालीन पेंटिंग कला को प्राचीन ग्रीक और रोमन सभ्यता के साथ मिलाकर बनाने लगे। जिसे हम प्रत्येक देश की संस्कृति कला और सभ्यता में देख सकते है।

पेटिंग का इतिहास अगले अंक में....





ध्यान विधि
 
 
अनुभव करो-मैं हूं
शिव ने कहाः हे कमल नयनी, मधुर स्पर्शी! गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए यह बोध बनाए रहो कि मैं हूं, और शाश्वत जीवन को खोज लो...
यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए-गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए-सजग रहो कि 'तुम हो' और शाश्वत जीवन का आविष्कार कर लोः और अपने भीतर ही प्रवाह को, उर्जा को, शाश्वत जीवन को आविष्कृत कर लो। लेकिन हमें अपना ही बोध नहीं है।

पश्चिम में गुरजिएफ ने आत्म-स्मरण का प्रयोग एक बुनियादी विधि के रूप में किया। वह आत्म-स्मरण इसी सूत्र से निकलता है। और गुरजिएफ की पूरी व्यवस्था इसी एक सूत्र पर आधारित हैः 'तुम कुछ भी करते हुए अपने को स्मरण रखो।' यह बहुत कठिन है। यह सरल मालूम होता है लेकिन तुम भूलते रहोगे। तीन या चार सैंकेड के लिए भी तुम अपना स्मरण नहीं रख सकते। तुम्हें लगेगा कि तुम स्मरण कर रहे हो और अचानक तुम किसी अन्य विचार में गति कर चुकोगे। अगर यह विचार भी उठा कि "ठीक, मैं तो अपना स्मरण कर रहा हूं," तो तुम चूक गए, क्योंकि यह विचार आत्म-स्मरण नहीं है।

आत्म-स्मरण में कोई विचार नहीं होगा; तुम बिल्कुल रिक्त होओगे। और आत्म-स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। ऐसा नहीं कि तुम कहो, "हां, मैं हूं"। "हां, मैं हूं" कहने से तुम चूक गए। "मैं हूं" कहने से तुम चूक गए। "मैं हूं" यह एक बौद्धिक बात हो गई, एक मानसिक हो गई।

यह अनुभव करो कि "मैं हूं"। "मैं हूं" इन शब्दों को नहीं अनुभव करना है। उसे श्शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि तुम हो। सोचो मत। अनुभव करो! प्रयोग करो। यह कठिन है, लेकिन तुम कृतसंकल्प होकर इस पर लगे ही रहो तो यह घटित होता है। टहलते हुए, स्मरण रखो कि तुम हो, और अपने होने को ही महसूस करो, किसी विचार या प्रत्यय को नहीं। बस अनुभव करो। मैं तुम्हारे हाथ को छुऊं, या अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रखूः उसे शब्द मत दो। बस स्पर्श को अनुभव करो, और उस अनुभव करने में स्पर्श को ही नहीं, उसको भी अनुभव करो जिसे स्पर्श किया गया है। फिर तुम्हारी चेतना के दो फलक हो जाएंगे।

तुम वृक्षों के नीचे टहल रहे होः वृक्ष हैं, हवा है, सूरज उग रहा है। यह तुम्हारे चारों ओर का संसार है; तुम उसके प्रति सजग हो। एक क्षण को खड़े रहो, और फिर अचानक स्मरण करो कि 'तुम हो' लेकिन उसको शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि तुम हो। यह निशब्द अनुभूति, एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हें एक झलक दे जाएगी-एक झलक जो कोई एल एस डी तुम्हें नहीं दे सकती, एक झलक जो वास्तविक की है। एक क्षण के लिए तुम अपनी अंतस-सत्ता के केंद्र पर फेंक दिए जाते हो। तब तुम दर्पण के पीछे हो, तुम प्रतिबिंबो के जगत के पार चले गए; तुम अस्तित्वगत हो गये। और यह तुम किसी भी समय कर सकते हो। इसके लिए किसी विशेष स्थान और विशेष समय की जरूरत नहीं है। और तुम यह नहीं कह सकते कि, "मेरे पास समय नहीं है।" इसे तुम खाते समय कर सकते हो, नहाते समय कर सकते हो, चलते हुए या बैठे हुए कर सकते हो-किसी भी समय। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कर रहे हो, तुम अचानक अपना स्मरण कर सकते हो, और फिर अपनी अंतस-सत्ता की उस झलक को जारी रखने की चेष्टा करो।

यह कठिन होगा। एक क्षण को तुम्हें लगेगा कि स्मरण आया और अगले ही क्षण तुम भटक जाओगे। कोई विचार प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब तुम पर झलक जाएगा, और तुम प्रतिबिंब में उलझ जाओगे। लेकिन न दुखी होओ और न ही हताश होओ। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जन्मों से हम प्रतिबिंबों में उलझ रहे हैं। यह एक यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। तत्क्षण, स्वतः ही हम प्रतिबिंबों की ओर वापस लौटा दिये जाते हैं। लेकिन एक क्षण को भी तुम्हें झलक मिल जाए, तो शुरु करने के लिए पर्याप्त है। और वह पर्याप्त क्यों है? क्योंकि तुम्हें कभी भी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। तुम्हारे साथ तो हमेशा केवल एक क्षण ही होता है। और यदि तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक मिल सके, तो तुम उसमें रह सकते हो। केवल प्रयास ही आवश्यकता है। एक सत्त प्रयास की आवश्यकता है।
-ओशो
ध्यान योगः प्रथम और अंतिम मुक्ति से संकलित
 
 

 

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