जरूथुस्त्र--
जरथुस्त्र राजा की
और देखकर मुस्कुराया
और जमीन से गेहूँ
का एक दाना
उठा कर राजा
को दे दिया और
उस गेहूँ के
दाने के माध्यम
से यह बताया
कि ‘’गेहूँ के
इस छोटे से
दाने से, सृष्टि
के सारे नियम
और प्रकृति की
सारी शक्तियां
समाई हुई है।
राजा
तो जरथुस्त्र
के इस उत्तर
को समझ ही न
सका, और जब
उसने अपने
आसपास खड़े लोगों
के चेहरे पर
मुस्कान
देखी तो वह
गुस्से के
मारे आग-बबूला
हो गया। और
उसे लगा कि
उसका उपहास
किया गया है,
उसने गेहूँ के
उस दाने को
उठाकर जमीन पर
पटक दिया। और
जरथुस्त्र
से उसने कहा,
‘’मैं मूर्ख था
जो मैंने अपना
समय खराब
किया, और आप से
यहां पर मिलने
चला आया।‘’
वर्ष
आए और गए। वह
राजा एक अच्छे
प्रशासन और
योद्धा के रूप
में खूब सफल
रहा। और खूब
ही ठाठ-बाट और
ऐश्वर्य का
जीवन जी रहा
था। लेकिन रात
को यह सोने के
लिए अपने विस्तर
पर जाता तो
उसके मन में
बड़े ही
अजीब-अजीब से
विचार से
विचार उठने
लगते और उसे
परेशान करते;
मैं इस आलीशान
महल में खूब
ठाठ बाट और
ऐश्वर्य से
जीवन जी रहा
हूं, लेकिन
आखिरकार मैं कब
तक इस
समृद्धि, राज्य,
धन-दौलत से
आनंदित होती
रहूंगा। और जब
मैं मर जाऊँगा
तो फिर क्या
होगा। क्या
मेरे राज्य
की शक्ति,
मेरा घन-दौलत,
संपति मुझे
बीमारी से और
मृत्यु से
बचा सकेंगी।
क्या मृत्यु
के साथ ही सब
कुछ समाप्त
हो जाता है?
राजमहल
में एक भी
आदमी राजा के
इन प्रश्नों
का उत्तर
नहीं दे सका।
लेकिन इसी बीच
जरथुस्त्र
की प्रसिद्धि
चारों और
फैलती चली गई।
इसलिए राजा ने
अपने अहंकार
को एक तरफ
रखकर, घन दौलत
के साथ एक
बड़ा काफिला
जरथुस्त्र
के पास भेजा
और साथ ही
अनुरोध भरा
निमंत्रण
पत्र लिखा कि
‘’मुझे बहुत
अफसोस है, जब
मैं अपनी युवावस्था
में आपसे मिला
था, उस समय मैं
जल्दी में था
और आपसे
लापरवाही से
मिला था। उस
समय मैं आपसे
अस्तित्व
के गूढ़ तम
प्रश्नों की
व्याख्या
जल्दी करने
के लिए कहा
था। लेकिन अब
मैं बदल चुका हूं,
और जिसका उत्तर
नहीं दिया जा
सकता, उस
असंभव उत्तर
के मांग में
मैं नहीं
करता। लेकिन
अभी भी मुझे
सृष्टि के
नियम और
प्रकृति की
शक्तियों को
जानने की गहन
जिज्ञासा है।
जिस समय मैं युवा
था। उस समय से
ज्यादा
जिज्ञासा है
यह सब जानने
की। मेरी आपसे
प्रार्थना है
कि आप मेरे
महल में आएं।
और अगर आपका
महल में आना
संभव न हो, तो
आप अपने सबसे
अच्छे शिष्य
में से किसी
एक शिष्य को
भेज दें, ताकि
वह मुझे जो
कुछ भी इन प्रश्नों
के विषय में
समझाया जा
सकता हो समझा
सके।
थोड़े
दिनों के बाद
वह काफिला और
संदेशवाहक वापस
लौट आये। उन्होंने
राजा को बताया
कि वे जरथुस्त्र
से मिले।
जरथुस्त्र ने
अपने आशीष
भेजे है।
लेकिन आपने
उनको जो खजाना
भेजा था, वह उन्होंने
वापस लोटा
दिया है।
जरथुस्त्र
ने उस खजानें
को यह कहकर
वापस कर दिया
है कि उसे तो खानों
का खजाना मिल
चुका है। और
साथ ही जरथुस्त्र
ने एक पत्ते
में लपेट कर
कुछ छोटा सा
उपहार राजा के
लिए भेजा है।
और संदेशवाहक
ने कहां कि वे
राजा से जाकर कह
दें कि इसमे
ही वह शिक्षक
है जो कि उसे
सब कुछ समझा
सकता है।
राजा
ने जरथुस्त्र
के भेजे हुए
उपहार को खोला
और फिर उसमें
से उसी गेहूँ
के दाने को
पाया—गेहूँ का
वही दाना जिसे
जरथुस्त्र
ने पहले भी
उसे दिया था।
राजा ने सोचा
कि जरूर इस
दाने में कोई
रहस्य या
चमत्कार
होगा, इसलिए
राजा ने एक
सोने के डिब्बे
में उस दाने
को रखकर अपने खजानें
में रख दिया।
हर रोज वह उस गेहूँ
के दाने को इस
आशा के साथ
देखता कि एक
दिन जरूर कुछ
चमत्कार
घटित होगा, और गेहूँ
का दाना किसी
ऐसी चीज में
या किसी ऐसे
व्यक्ति
में
परिवर्तित हो
जाएगा जिससे
कि वह सब कुछ
सीख जाएगा जो
कुछ भी वह
जानना चाहता
है।
महीने
बीते, और फिर
वर्ष पर वर्ष
बीतते चले गए।
लेकिन कुछ भी
चमत्कार
नहीं हुआ।
अंतत: राजा ने
अपना धैर्य खो
दिया और फिर
से बोला, ‘’ऐसा
मालूम होता
है, कि जरथुस्त्र
ने फिर से
मुझे धोखा
दिया है। या
तो वह मेरा
उपहास कर रहा
है। या फिर वह
मेरे प्रश्नों
के उत्तर
जानता ही
नहीं। लेकिन
मैं उसे दिखा दूँगा
कि मैं बिना
उसकी किसी मदद
के भी प्रश्नों
के उत्तर खोज
सकता हूं।‘’
फिर उस राजा
ने भारतीय
रहस्यदर्शी
के पास अपने
काफिले को
भेजा। जिसका
नाम
तशंग्रगाचा था।
उसके पास
संसार के
कौने-कौने से
शिष्य आते
थे, और फिर से
उसने उस
काफिले के साथ
वहीं संदेशवाहक
और वहीं खजाना
भेजा जिसे
उसने जरथुस्त्र
के पास भेजा
था।
कुछ
महीनों के पश्चात
संदेशवाहक उस
भारतीय
दार्शनिक को
अपने साथ
लेकिन वापस
लौटे। लेकिन
उस दार्शनिक
ने राजा से
कहा, ‘’मैं आपका
शिक्षक बन कर
सम्मानित
हुआ, लेकिन यह
मैं साफ-साफ
बता देना चाहता
हूं कि मैं
खास करके आपके
देश में इसलिए
आया हूं ताकि
मैं जरथुस्त्र
के दर्शन कर सकूँ।‘’
इस
पर राजा सोने
का वह डिब्बा
उठा लाया
जिसमें गेहूँ
का दाना रखा हुआ
था। और वह उसे
बताने लगा, ‘’मैंने
जरथुस्त्र
से कहा था कि
मुझे कुछ समझाए-सिखाएं।
और देखो, उन्होंने
यह क्या भेज
दिया है, मेरे
पास। यह गेहूँ
का दाना वह शिक्षक
है जो मुझे
सृष्टि के
नियमों और प्रकृति
की शक्तियों
के विषय में समझाए
गा। क्या यह
मेरा उपहास
नहीं?
वह
दार्शनिक
बहुत देर तक
उस गेहूँ के
दाने की तरफ
देखता रहा, और उस
दाने की तरफ
देखते-देखते
जब वह ध्यान
में डूब गया
तो महल में
चारों और एक
गहन मौन छा
गया। कुछ समय
बाद वह बोला, ‘’मैंने
यहां आने के
लिए जो इतनी
लंबी यात्रा
की उसके लिए
मुझे कोई पश्चाताप
नहीं है, क्योंकि
अभी तक तो मैं
विश्वास ही
करता था,
लेकिन अब मैं
जानता हूं कि
जरथुस्त्र
सच में ही एक
महान सदगुरू है।
गेहूँ का यह
छोटा सा दाना
हमें सचमुच
सृष्टि के
नियमों और प्रकृति
की शक्तियों
के विषय में
सिखा सकता है,
क्योंकि गेहूँ
का यह छोटा सा
दाना अभी और यहीं
अपने में सृष्टि
के नियम और प्रकृति
की शक्ति को
अपने में समाएँ
हुए है। आप गेहूँ
के इस दाने को
सोने के डिब्बे
में सुरक्षित
रखकर पूरी बात
को चूक रहे
है।
अगर
आप इस छोटे से गेहूँ
के दाने को जमीन
में बो दें,
जहां से यह
दाना संबंधित
है, तो मिट्टी
का संसर्ग
पाकर,
वर्षा-हवा-धूप
, और चाँद-सितारों
की रोशनी पाकर,
यह और अधिक विकसित
हो जाएगा।
जैसे कि व्यक्ति
की समझ और ज्ञान
की विकास होता
है, तो वह अपने
अप्राकृतिक
जीवन को
छोड़कर
प्रकृति और सृष्टि
के निकट आ
जाता है।
जिससे कि वह
संपूर्ण ब्रह्मांड
के अधिक निकट
हो सके। जैसे
अनंत-अनंत ऊर्जा
के स्त्रोत
धरती में बोए
हुए गेहूँ के
दाने की और उमड़ते
है, ठीक वैसे
ही ज्ञान के
अनंत-अनंत स्त्रोत
व्यक्ति की और
खुल जाते है। और
तब तक उसकी
तरफ बहते रहते
है जब तक कि व्यक्ति
प्रकृति और संपूर्ण
ब्रह्मांड के
साथ एक न हो
जाए। अगर गेहूँ
के इस दाने को
ध्यानपूर्वक
देखो, तो तुम
पाओगे कि इसमे
एक और रहस्य
छुपा हुआ है—और
वह रहस्य है
जीवन की शक्ति
का। गेहूँ का
दाना मिटता
है, और उस
मिटने में ही
वह मृत्यु को
जीत लेता है।
राजा
ने कहा, ‘’आप जो
कहते है वह सच
है। फिर भी
अंत में तो
पौधा कुम्हलाएगा
और मर जाएगा। और
पृथ्वी में विलीन
हो जाएगा।
उस
दार्शनिक ने
कहा, लेकिन तब
तक नहीं मरता,
जब तक कि वह
सृष्टि की
प्रक्रिया को
पूरा नहीं कर लेता।
और स्वयं को
हजारों गेहूँ
के दानों में
परिवर्तित
नहीं कर लेता।
जैसे छोटा सा गेहूँ
का दाना मिटता
है तो पौधे के
रूप में
विकसित हो
जाता है। ठीक
वैसे ही जब
तुम भी
जैसे-जैसे विकसित
होने लगते हो,
तुम्हारे
रूप भी बदलने
लगते है। जीवन
से और नए जीवन
निर्मित होते
है, एक सत्य
से और सत्य
जन्मते है,
एक बीज से और बीजों
का जन्म होता
है। केवल
जरूरत है तो
एक कला सीखने
की और वह है
मरने की कला।
उसके बाद ही
पुनर्जन्म
होता है, मेरी
सलाह है कि हम
जरथुस्त्र
के पास चलें,
ताकि वे हमें
इस बारे में कुछ
अधिक बताएं।
कुछ
ही दिनों के
पश्चात वे
जरथुस्त्र
के बग़ीचे में
आए। प्रकृति
की पुस्तक ही
उसकी एकमात्र पुस्तक
थी। और उसने
अपने शिष्यों
को उस प्रकृति
की पुस्तक को
ही पढ़ने की
शिक्षा दी। इन
दोनों ने जरथुस्त्र
के बग़ीचे में
एक और बड़े
सत्य की
शिक्षा पाई।
कि जीवन और कार्य,
अवकाश और अध्यन,
एक ही चीज है;
जीने का सही
ढंग सरल और स्वाभाविक
जीवन जीना है।
जीवन सृजनात्मक
होना चाहिए।
उसी में व्यक्ति
का विकास
समग्रता से और
सक्रियता से
होता है।
अस्तित्व
और जीवन के नियमों
को
पढ़ने-सिखते
उनका एक वर्ष
बीत गया। अंतत
रात अपने नगर
लौट आया और उसने
जरथुस्त्र
से निवेदन
किया कि वह
अपनी महान
शिक्षा के सार
तत्व को व्यवस्थित
रूप से संगृहीत
कर दे। जरथुस्त्र
ने वैसा ही
किया, और उसी
के परिणामस्वरूप
पारसियों की
महान पुस्तक ‘’जेंदावेस्ता’’
का आविर्भाव
हुआ।
यह
पूरी कहानी बस
यही बताती है
कि मनुष्य
परमात्मा कैसे
हो सकता है।
जो
कुछ मनुष्य
में बीज रूप में
छिपा हुआ है,
वह अगर उद्घाटित
हो जाए, प्रकट
हो जाए, तो
मनुष्य
परमात्मा हो
सकता है।
ओशो
संदेह
अभी मैं खेल रहा हूं, तुम कहते हो, मंदिर में और ज्या दा आनंद आएगा।
और छोटे बच्चेह को वह आनंद नहीं आता, तुम तो श्रद्धा सिखा रहे हो और बच्चाह सोचता है, ये कैसा आनंद, यहां बड़े-बड़े बैठे है उदास,
यहां दोड भी नहीं सकता, खेल भी नहीं सकता। नाच भी नहीं सकता, चीख पुकार नहीं कर सकता, यह कैसा आनंद। फिर बाप कहता है, झुको, यह भगवान की मूर्ति है। बच्चाा कहता है भगवान यह तो पत्थहर की मूर्ति को कपड़े पहना रखे है। झुको अभी, तुम छोटे हो अभी तुम्हा री बात समझ में नहीं आएगी। ध्या न रखना तुम सोचते हो तुम श्रद्धा पैदा कर रहे हो, वह बच्चा सर तो झुका लेगा लेकिन जानता है, कि यह पत्थेर की मूर्ति है। उसे न केवल इस मूर्ति पर संदेह आ रहा है। अब तुम पर भी संदेह आ रहा है, तुम्हाेरी बुद्धि पर भी संदेह आ रहा है। अब वह सोचता है ये बाप भी कुछ मूढ़ मालूम होता है। कह नहीं सकता, कहेगा, जबत तुम बूढे हो जाओगे, मां-बाप पीछे परेशान होते है, वे कहते है कि क्यास मामला है।
बच्चेी हम पर श्रद्धा क्योंह नहीं रखते, तुम्हींा ने नष्टू करवा दी श्रद्धा। तुम ने ऐसी-ऐसी बातें बच्चेह पर थोपी, बच्चोम का सरल ह्रदय तो टुट गया। उसके पीछे संदेह पैदा हो गया, झूठी श्रद्धा कभी संदेह से मुक्तं होती ही नहीं। संदेह की जन्मेदात्री है। झूठी श्रद्धा के पीछे आता है संदेह, मुझे पहली दफा मंदिर ले जाया गया, और कहा की झुको, मैंने कहा, मुझे झुका दो, क्योंाकि मुझे झुकने जैसा कुछ नजर आ नहीं रहा।
पर मैं कहता हूं, मुझे अच्छे बड़े बूढे मिले, मुझे झुकाया नहीं गया। कहा, ठीक है जब तेरा मन करे तब झुकना,
उसके कारण अब भी मेरे मन मैं अब भी अपने बड़े-बूढ़ो के प्रति श्रद्धा है। ख्या ल रखना, किसी पर जबर्दस्ती़ थोपना मत, थोपने का प्रतिकार है संदेह। जिसका अपने मां-बाप पर भरोसा खो गया, उसका अस्तित्व़ पर भरोसा खो गया। श्रद्धा का बीज तुम्हामरी झूठे संदेह के नीचे सुख गया।
--एस धम्मो सनंतनो
विद्रोह धर्म की बुनियाद
दुनिया में केवल जैन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्महत्या का आदर
करता है। अब यह हैरान होने की तुम्हारी बारी है। निश्चित ही वे इसे
आत्महत्या नहीं कहते। वे इसको सुंदर धार्मिक नाम देते है—संथारा। मैं
इसके खिलाफ हूं। खासकर जिस ढंग से यह किया जाता है—यह बहुत ही क्रूर और
हिंसात्मक है। यह आश्चर्य की तो बात है कि जो धर्म अहिंसा में विश्वास
करता है। वह धर्म संथारा, आत्महत्या का उपदेश देता है। तुम इसको धार्मिक
आत्म हत्या कह सकते हो। लेकिन आत्महत्या तो आत्महत्या ही है। नाम से
कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो मरता ही है।
मैं इसके खिलाफ क्यों हूं, मैं किसी आदमी के आत्महत्या करने के अधिकार
के विरोध में नहीं हूं। नहीं, यह तो मनुष्य का मूलभूत अधिकार होना चाहिए।
अगर मैं जीवित रहना नहीं चाहता तो किसी दूसरे को मुझे जीवित रखने का कोई
अधिकार नहीं है। मैं जैनियों के आत्महत्या के विचार के विरोध में नहीं
हूं। लेकिन वह विधि...उनकी विधि है कुछ न खाना, खाना छोड़ देते है, बिलकुल
नहीं खाते। इस प्रकार बेचारे आदमी को मरने में करीब-करीब नब्बे दिन लगते
है। यह यातना है। सताना है, तुम इसे और नहीं सुधार सकते, इससे अधिक कष्ट
सोचा भी नहीं जा सकता। अडोल्फ हिटलर को लोगो को सताने का बढ़ीया तरीका
नहीं सूझा।
वे अपने बालों को कभी नहीं काटते, वे उन्हें अपने हाथों से उखाड़ते है1 देखो, कितना बढ़िया तरीका है।
हर साल जैन मुनि अपने बालों को उखाड़ता है—मुछ और दाढ़ी और शरीर के सभी बालों को अपने हाथों से उखाड़ता है। वे कोई यंत्र के, टेक्नोलॉजी के खिलाफ है। और वे इसे तर्क कहते है। किसी बात की तर्कित अंत तक जाना। अगर तुम उस्तरे का उपयोग करो तो वह टेक्नोलॉजी है। यहां तक कि ये तथाकथित पर्यावरण के हिमायती भी अपनी दाढ़ी बनाते रहते है। बिना यह जाने कि वे प्रकृति के विरूद्ध एक अपराध कर रहे है।
जैन मुनि अपने बाल उखाड़ता है—चुपचाप एकांत में नहीं, क्योंकि एकांत तो
उन्हें कभी मिलता ही नहीं। कोई भी बात गुप्त न रखना, पूरी तरह से
सार्वजनिक होना, अपने आपकेा सताने का हिस्सा है। वे बाजार में नग्न खड़े
होकर अपने बाल उखाड़ते है। भीड़ निश्चित ही ताली बजा-बजा कर सराहना करती
है। और जैन, यद्यपि उनको बडी हमदर्दी अनुभव होती है......तुम उनकी आंखों
में आंसू भी देख सकते हो। अचेतन में उन्हें भी बड़ा मजा आता है—और बीना
टिकट बिना पैसे के।
लेकिन किसी को भी या स्वयं को कष्ट पहुंचाना, सताना एक अपराध है।
इसके साथ तुम समझ पाओगें कि में कोर्इ अपमानजनक, कोई अशिष्ट व्यवहार
नहीं कर रहा था। मैं बहुत ही संगत, प्रासंगिक प्रश्न पूछ रहा था। उस दिन
से मैंने जीवन भर के लिए सब प्रकार की मूख्रताओ, अंधविश्वासों—संक्षिप्त
से धामिर्क कचरा, बुलशिट—के खिलाफ झगड़ा किया। बुलशिट शब्द अच्छा है,
बहुत कुछ कह देता है, संक्षिप्त में।
उस दिन मैंने अपना जीवन एक खेल, विद्रोही की तरह शुरू किया और मैं अपनी
अंतिम सांस तक विद्रोही ही बना रहूंगा—या शायद उसके बाद भी, किसे पता है।
जब मेरे पास शरीर नहीं होगा तो मेरे पास मेरे प्रेमियों के हजारों शरीर
होंगे। में उन्हें उकसा सकता हूं—और तुम जानते हो कि मैं बहकाने बाला हूं।
आने वाली सदियों तक मैं उनके दिमाग में विचार डाल सकता हूं। ठीक वही मैं
करने बाला हूं। इस शरीर की मृत्यु के साथ मेरा विद्रोह नहीं मर सकता। मेरी
क्रांति और भी अधिक तीव्रता से चलती रहेगी, क्योंकि तब इसे आगे बढ़ाने के
लिए अनेक शरीर होगें, अनगिनत हाथ होंगे और बहुत आवाजें होंगी।
वह दिन बहुत महत्वपूर्ण था, ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण था। उस दिन के
साथ मैंने हमेशा उस दिन को याद किया है जब जीसस ने यहूदियों के मंदिर में
रबाईयों से बहस की थी। वे मुझसे कुछ बड़े थे, शायद आठ साल के या नौ साल के।
उन्होंने जिस प्रकार से बहस की उसने उनके समस्त जीवन-प्रवाह को
निर्धारित किया।
मुझे जेन मुनि का नाम याद नहीं है, शायद उसका नाम शांति सागर था। निश्चित
ही वह शांति का सागर नहीं था। इसलिए उसका नाम तक मैं भूल गया। उसका अर्थ हो
सकता है शांति, या मौन। ये वे बुनियादी अर्थ है। उसमें दोनों नहीं थे। न
तो वह शांत था। न ही मौन था। बिलकुल भी नहीं। न ही तुम कह सकते हो कि उसमें
कोई तूफान न था। क्योंकि वह इतना क्रोधित हो गया कि उसने चिल्ला कर मुझे
बैठ जाने को कहा।
मैंने कहा: ‘मुझे अपने घर में बैठ जाने के लिए कोई नहीं कह सकता। हाँ में
आपको जाने के लिए कह सकता हूं। लेकिन मैं आपको जाने के लिए भी नहीं कहूंगा,
क्योंकि अभी कुछ और प्रश्न पूछने है। कृपया नाराज न हो। याद रखें आना
नाम, शांति सागर –शांति और मौन के सागर। आप छोटे बच्चे से इतना परेशान मत
होइए।’
वे शांत थे कि नहीं इसकी फ़िकर किये बिना मैंने अपनी नानी से पूछा, जो इस
बात चीत को सुन कर बहुत हंस रही थी। आप क्या कहती है नानी। क्या मुझे
इनसे और प्रश्न पूछने चाहिए या इन्हें अपने घर से जाने के लिए कहूं, नानी
ने कहा: ‘तुम जो पुछना है पूछ सकते हो अगर ये अत्तर न देते इन्हें कह दो
दरवाजा खुला है, वे जा सकते है।’
यही वह महिला थी जिन्हें मैंने प्रेम किया। यही वह महिला थी जिन्होंने
मुझे विद्रोही बनाया। यहां तक कि मेरे नाना भी भौचक्के रह गए कि इस प्रकार
उन्होंने मेरा साथ दिया वह तथाकथित तुरंत चुप हो गया जिस क्षण उसने देखा
कि मेरी नानी मेरे पक्ष ले रही है। केबल वे ही नहीं, सारे गांव के लोग
तुरंत मेरे पक्ष में हो गए। बेचारा जैन मुनि बिलकुल ही अकेला रह गया।
मैंने उससे कुछ और प्रश्न पूछे: ‘आपने कहा किसी बात में तब तक विश्वास
नहीं करना जग तक कि तुमने स्वयं उसका अनुभव न किया हो। मुझे इसमें सच
दिखाई देता है इसलिए यह प्रश्न.........’
जैनी मानते है कि सात नरक है। छठवें नरक तक वापस आने की संभावना है, लेकिन
सातवां शाश्वत है। शायद सातवां ईसाइयों का नरक है, क्योंकि वहां भी एक
बार तुम उसमें गए तो हमेशा के लिए गए।
मैंने कहा: ‘आपने सात नरकों की बात की, इसलिए प्रश्न उठता हैं कि क्या
आपने सातवें नरक की यात्रा की है, क्या आप सातवें नरक में गए है?
अगर वहां गए होते तो यहां नहीं हो सकते थे। अगर आप वहां गए तो किस अधिकार
से कहते है कि सातवां नरक है, या अगर आप सात पर जोर देना चाहते है तो यह
सिद्ध करें कि कम से कम एक आदमी शांति सागर सातवें नरक से वापस आया है।‘
उसकी तो बोलती बंद हो गई। वह अवाक रह गया। वह विश्वास ही न कर सका कि एक
बच्चा ऐसे प्रश्न पूछ सकता था। आज मुझे भी विश्वास नहीं हो सकता। मैं
कैसे इस प्रकार का प्रश्न पूछ सका। इसका एक ही उत्तर में दे सकता हूं कि
मैं अशिक्षित था, बिलकुल ही अज्ञानी था। ज्ञान, जानकारी तुम्हें बहुत
चालबाज बना देती है। मैं चालाक नहीं था। मैंने वही प्रश्न पूछा जो कोई भी
कोई बच्चा पूछ सकता था अगर वह शिक्षित न होता तो शिक्षा मासूम बच्चों के
प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है। शायद बच्चों की स्वतंत्रता इस संसार
की अंतिम स्वतंत्रता होगी।
मैं बिलकुल ही अज्ञानी, अंजान और सरल था। मैं पढ-लिख नहीं सकता था।
अंगुलियों से ज्यादा गिन भी नहीं सकता था। यहां तक कि आज भी जब मुझे कुछ
गिनना हाता है तो अपनी अंगुलियों से शुरू करता हूं। और अगर ऐ अंगुलि छूट गई
तो गड़बड़ हो जाती है।
वह उत्तर नहीं दे सका। मेरी नानी खड़ी हुई और कहा: ‘आपको उत्तर देना ही
होगा। ऐसा मत सोचो कि एक बच्चा पूछ रहा है। मैं भी पूछ रही हूं, और आपकी
मेजबान हूं।’
अब फिर से मुझे एक अन्य जैन परंपरा के बारे में बताना पड़ेगा। जब जेन
मुनि भोजन लेने के लिए किसी के घर आता है तो भोजन करने के बाद वह आशीर्वाद
के रूप में परिवार को उपदेश देता है। उपदेश गृहिणी को संबोधित होता है।
मेरी नानी ने कहा कि ‘आज आपने हमारे यहाँ भोजन किया है, इस घर की गृहिणी
होने के कारण मैं भी यही प्रश्न पूछ रही हूं। क्या आप सातवें नरक में गए
है। लेकिन तब आप यह नहीं कह सकते कि सात नरक है।‘
बेचारा मुनि मेरी नानी जैसी सुंदर स्त्री का सामना न कर सका। वह इतना
घबरा गया कि वह उठ कर घर के बहार जाने लगा। मेरी नानी ने चिल्ला कर कहा:
‘रुको, जाओ मत। मेरे बच्चें के प्रश्न का अत्तर कौन देगा? वह और भी कुछ पूछना चाहता है। आप किस तरह के आदमी हैं। बच्चें के प्रश्नों से भाग रहे है।‘
चारों और सन्नाटा छा गया—ठीक जैसा यहां पर है—किसी ने कुछ न कहा मुनि ने
आंखें झुका ली और तब फिर मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पुछना। मेरे पहले दो
प्रश्नों का अत्तर नहीं दिया गया और तीसरा मैंने इसलिए नहीं पूछा
क्योंकि मैं घर के मेहमान को लज्जित नहीं करना चाहता। मैं पीछे हटता हुं।
और मैं सच में ही वहाँ से चला दिया और मुझे यह देख कर बडी खुशी हुई कि
मेरी नानी भी मेरे पीछे-पीछे चली आई।
मेरे नाना ने मुनि को विदा किया। लेकिन जैसे ही वह घर से बाहर निकला मेरे
नाना तुंरत घर के भीतर आए और मेरी नानी से पूछा, ‘तुम पागल तो नहीं हो गर्इ
हो, पहले तो तुमने इस लड़के का साथ दिया जो जन्मजात मुसीबत खड़ी करने
वाला लड़का है। और फिर तुम मेरे गुरु को बिना प्रणाम किए ही इसके साथ चली
गई।‘
मेरी नानी ने कहा: ‘वह मेरा गुरु नहीं है। और जिसे तुम जन्म जात मुसीबत
खड़ी करने बाला समझ रहे हो वह तो अभी बीज है। कोई नहीं जानता की वह आगे चल
कर क्या बनेगा।‘
अब मुझे मालूम हे कि उस बीज ने कौन सा रूप धारण किया। जब तक कोई पैदाइशी उपद्रवी न हो तब तक वह बुद्ध पुरूष नहीं बन सकता।
और मैं कोई गौतम बुद्ध जैसा पारंपरिक बुद्ध ही नहीं हूँ, वे तो बहुत
पारंपरिक है। मैं जो़रबा दि बुद्धा हूं। मैं पूर्व और पश्चिम का मिलन हूं,
सच तो यह ही कि मैं पूर्व और पश्चिम में उचे और नीचे में, पुरूष और स्त्री
में, अच्छे और बुरे में, परमात्मा और शैतान में बाँटता ही नहीं हूं। नहीं,
हजार बार नहीं। मैं कभी किसी चीज को खँड़-खंड नहीं करता। अभी तक जो
खंड़-खंड़ किया गया है। मैं उसे मिलाता हूं, यहीं मेरा काम है।‘
मेरे पूरे जीवन में क्या हुआ, इसे समझने के लिए वह दिन बहुत महत्वपूर्ण
है। क्योंकि जब तक तुम बीज को न समझोगे, तुम वृक्ष और फूलों और शाखाओं से
झाँकते हुए चाँद से चूक जाओगे।
उसी दिन से मैं हमेशा हर प्रकार की यातना के खिलाफ रहा हूँ। मैं हर तरह की
तपश्चर्या के खिलाफ रहा हूं। निश्चित ही ये शब्द मैंने काफी बाद में
जाने, पर शब्दों से क्या फर्क पड़ता है। मुझे तब भी कुछ बदबू आ रही थी।
तुम जानते हो कि मुझे सब तरह की यातनाओं से एलर्जी है मैं चाहता हूं कि हर
मनुष्य पूरी तरह से जीए। जीवन का पूरी तरह से भोग करे।
न्यूनतम
पर जीना मेरा ढंग नहीं है। मैं तो चाहता हूं कि हर व्यक्ति जीने के अंतिम
बिंदु को छू ले। और वह अंतिम बिंदु के पार जा सके तो और भी अच्छा है। आगे
बढ़ो। इंतजार मत करो, इंतजार में समय बरबाद मत करो।
न्यूनतम तो कायर का तरीका है। अगर मेरा बस चले तो उनकी अधिकतम सीमा को
न्यूनतम सीमा बना दूँ। हम तारों पर पहुंचने की कोशिश कर रहे है।
फ़िज़िक्स का भी यही लक्ष्य है, अंतत: हमारी गति प्रकाश की गति के बराबर
हो जाए। अगर उस गति को हमने प्राप्त न किया तो हम नष्ट हो जाएंगे। अगर हम
प्रकाश की गति उपलब्ध कर लें तो हम किसी भी मरती हुई पृथ्वी से या ग्रह
से हट सकते है। एक न एक दिन हर पृथ्वी, हर ग्रह, हर तारा मरेगा, नष्ट
होगा। इससे तुम कैसे बचोगे, तुम्हें बडी तीव्र टैकनॉलॉजी की जरूरत होगी।
यह पृथ्वी सिर्फ चार हजार वर्ष में मर जाएगी। तुम कुछ भी करो, इसे बचाया
नहीं जा सकता। प्रतिदिन यह अपनी मृत्यु के करीब आ रही है......और तुम एक
घंटे में तीस मील की गति से जाने की कोशिश कर रहे हो। अरे, प्रति सेकेंड एक
सौ छियासी हजार मील की गति से चलने की कोशिश करो। यही प्रकाश की गति है।
मैं जीवन को समाप्त कर देने के खयाल के खिलाफ नहीं हूं, अगर कोई अपने
जीवन का अंत कर देना चाहता है तो निश्चित ही यह उसका अधिकार है। लेकिन
इसके लिए शरीर को लंबे समय तक पीडित करने और सताने के मैं बिलकुल खिलाफ
हुं। जब ये शांति सागर मरे तो इन्हें मरने के लिए कम से कम एक सौ दिन भूखा
रहना पड़ेगा। एक सामान्य स्वस्थ आदमी को नब्बे दिन तक भूखा रहने की
क्षमता है। अगर वह असाधारण रूप से स्वस्थ तो वह और भी अधिक दिन तक भूखा
रह सकता है।
तो याद रखो कि मैं उस व्यक्ति के साथ कठोर नहीं था। उस संदर्भ में मेरा
प्रश्न बिलकुल उचित था—शायद और भी उचित था, क्योंकि वह उत्तर नहीं दे
सका था। और आश्चर्य है आज तुम्हें बताना कि वह सिर्फ मेरे प्रश्न पूछने
की ही शुरूआत नहीं थी बल्कि लोगों के उत्तर ने देने की भी शुरूआत थी।
पिछले पैंतालीस वर्षो में किसी ने भी मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिया।
मैं अनेक तथाकथित आध्यात्मिक लोगों से मिला हूं, लेकिन किसी ने कभी भी
मेरे कोई भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। एक प्रकार से उस दिन ने ही मेरे
समस्त जीवन कि दिशा को निश्चित कर दिया।
शांति सागर बहुत नाराज हो गए, लेकिन मैं बहुत खुश था। और मैंने इसे मैंने
अपने नाना से छिपाया नहीं। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, वे भले ही नाराज हो गए,
लेकिर मुझे तो बिलकुल सही लग रहा है। आपका गुरु साधारण योग्यता का आदमी
है। आपको उससे अधिक अच्छे गुरु की खोज करनी चाहिए।’
यहां तक वे हंस पड़े और उन्होंने कहा: ‘शायद तुम ठीक कहते हो, लेकिन अब
इस उम्र में गुरु बदलना बहुत व्यावहारिक नहीं होगा।’ उन्होंने मेरी नानी
से पूछा: ‘क्यों तुम्हारा क्या विचार है।‘
मेरी नानी—जैसी कि वे स्पष्ट वक्ता थी—ने कहा: ‘बदलने के लिए कभी देर
नहीं होती। इसमें देर-अबेर का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर आप देखते हो कि
आपने जो चुना है वह सही नहीं है, तो उसे बदल डालों। जल्दी करों उतना
अच्छा है, अब तुम बूढे हो गये हो। ऐसा मत करो कि कहो कि मैं बूढा हो रहा
हूं इसलिए बदल नहीं सकता। एक युवक न बदले तो चलेगा, लेकिन बूढा आदमी ऐसा
नहीं कर सकता—और तुम काफी बूढे हो गए हो।‘
और बस कुछ वर्ष बाद ही वे गुजर गये। लेकिन वे अपना गुरु बदलने का साहस न कर सके। वे उसी पुरानी लीक पर चलते रहे।
मेरी नानी ऐ अदभुत प्रभावशाली शक्ति बन सकती थी। वे सिर्फ ऐ गृहिणी बनने
के लिए नहीं थी। वे उस छोटे से गांव में सीमित रहने के लिए नहीं बनी थी।
उनके बारे में पूरे विश्व को जानना चाहिए था। शायद मैं उनका माध्यम हूं।
शायद उनहोंने स्वयं को मुझमें उड़े़ल दिया हो। उनका मुझसे इतना गहरा प्रेम
था कि मैंने अपनी असली मां को कभी असली मां नहीं समझा मैं हमेशा अपनी नानी
को ही अपनी असली मां समझता रहा।
नानी ने ही मुझे पहली बार यह बताया कि सही भी गलत आदमी के हाथ में गलत हो
जाता है। और गलत भी सही आदमी के हाथ में सही हो जाता है। इसलिए तुम इसकी
चिंता मत करो कि तुम क्या कर रहे हो। केवल एक ही बात याद रखो कि तुम क्या
हो रहे हो। ‘’करना’’ और ‘’होना’’ यही एकमात्र प्रश्न है। सभी धर्म करने
पर जोर देते है, लेकिन में तो होने को महत्व देता हूं। अगर तुम्हारा
होना, तुम्हारी बीइंग सही है। तो फिर तुम जो भी करोगे वह सही हो्गा। तब
फिर तुम्हारे लिए कोई और आदेश नहीं है। केवल एक यही है कि तुम्हारा मात्र
‘होना’ इतनी समग्रता से हो कि उसमें कोई छाया भी न आ सके। तब तुम कुछ भी
गलत नहीं कर सकते हो। सारी दुनिया भले ही कहे कि यह गलत है, उससे कोई फर्क
नहीं पड़ता, केवल तुम्हारी अपनी बीइंग, अपनी आत्मा ही महत्वपूर्ण है।
मुझे इसकी चिंता नहीं कि क्राइस्ट को सूली लगी। क्योंकि मुझे मालूम है
कि सूली पर भी वे अपने भीतर पूर्ण विश्राम में थे। वे इतने विश्राम में थे
कि वे प्रार्थना कर सके: ‘हे पिता, सच तो यह है कि उन्होंने पिता भी नहीं
कहा। ‘अब्बा’ जो कि और भी सुंदर शब्द है। ‘अब्बा। इन लोगो को माफ़ कर
देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे है।’
फिर करने पर जोर दिया जा रहा है, अफसोस कि वे सूली पर लटके हुए इस आदमी के ‘होने’ को देख सके। केवल ये होना ही महत्वपूर्ण है।
मैं नहीं मानता कि मैंने उस जेन मुनि से इस प्रकार के अजीब और परेशान करने
बाले प्रश्न पूछ कर कोर्इ गलती की। शायद मैंने उसकी सहायता ही की। शायद
एक दिन उसकी समझ में आ जाए, और अगर उसमें साहस होता तो वह समझ जाता, लेकिन
वह कायर था, वह भग खड़ा हुआ। और तब से मेरा अनुभव है कि ये सब तथाकथित
महात्मा और संत कायर है। मैंने आज तक कोई ऐसा महात्मा—हिंदू, मुसलमान,
ईसाई, या बौद्ध—नहीं देखा, जो कहा जो सके कि सच में विद्रोही है। जब तक कोई
विद्रोही न हो तक कोई धार्मिक नहीं हो सकता। विद्रोह धर्म की बुनियाद है।
--ओशो