Sunday, January 27, 2013

जरूथुस्‍त्र-- --संदेह ----विद्रोह धर्म की बुनियाद

जरूथुस्‍त्र--

एक बार पर्शिया का राज विशतस्‍या,  जब युद्ध जीतकर लौट रहा था, तो वह जरथुस्त्र के निवास के निकट जा पहुंचा। उसने इस रहस्‍यदर्शी संत के दर्शन करने की सोची। राज ने जरथुस्त्र के पास जाकर कहा, ‘’मैं आपके पास इसलिए अया हूं कि शायद आप मुझे सृष्‍टि और प्रकृति के नियम के विषय में कुछ समझा सकें। मैं यहां पर अधिक समय तो नहीं रूक सकता हूं, क्‍योंकि मैं युद्ध स्‍थल से लौट रहा हूं। और मुझे जल्‍दी ही अपने राज्‍य में वापस पहुंचना है, क्‍योंकि राज्‍य के महत्वपूर्ण मसले महल में मेरी प्रतीक्षा कर रहे है।

      जरथुस्‍त्र  राजा की और देखकर मुस्‍कुराया और जमीन से गेहूँ का एक दाना उठा कर राजा को दे दिया और उस गेहूँ के दाने के माध्‍यम से यह बताया कि ‘’गेहूँ के इस छोटे से दाने से, सृष्‍टि के सारे नियम और प्रकृति की सारी शक्‍तियां समाई हुई है।
      राजा तो जरथुस्‍त्र के इस उत्‍तर को समझ ही न सका, और जब उसने अपने आसपास खड़े लोगों के चेहरे पर मुस्‍कान देखी तो वह गुस्‍से के मारे आग-बबूला हो गया। और उसे लगा कि उसका उपहास किया गया है, उसने गेहूँ के उस दाने को उठाकर जमीन पर पटक दिया। और जरथुस्‍त्र से उसने कहा, ‘’मैं मूर्ख था जो मैंने अपना समय खराब किया, और आप से यहां पर मिलने चला आया।‘’
      वर्ष आए और गए। वह राजा एक अच्‍छे प्रशासन और योद्धा के रूप में खूब सफल रहा। और खूब ही ठाठ-बाट और ऐश्‍वर्य का जीवन जी रहा था। लेकिन रात को यह सोने के लिए अपने विस्‍तर पर जाता तो उसके मन में बड़े ही अजीब-अजीब से विचार से विचार उठने लगते और उसे परेशान करते; मैं इस आलीशान महल में खूब ठाठ बाट और ऐश्‍वर्य से जीवन जी रहा हूं, लेकिन आखिरकार मैं कब तक इस समृद्धि, राज्‍य, धन-दौलत से आनंदित होती रहूंगा। और जब मैं मर जाऊँगा तो फिर क्‍या होगा। क्‍या मेरे राज्‍य की शक्‍ति, मेरा घन-दौलत, संपति मुझे बीमारी से और मृत्‍यु से बचा सकेंगी। क्‍या मृत्‍यु के साथ ही सब कुछ समाप्‍त हो जाता है?
      राजमहल में एक भी आदमी राजा के इन प्रश्‍नों का उत्‍तर नहीं दे सका। लेकिन इसी बीच जरथुस्‍त्र की प्रसिद्धि चारों और फैलती चली गई। इसलिए राजा ने अपने अहंकार को एक तरफ रखकर, घन दौलत के साथ एक बड़ा काफिला जरथुस्‍त्र के पास भेजा और साथ ही अनुरोध भरा निमंत्रण पत्र लिखा कि ‘’मुझे बहुत अफसोस है, जब मैं अपनी युवावस्‍था में आपसे मिला था, उस समय मैं जल्‍दी में था और आपसे लापरवाही से मिला था। उस समय मैं आपसे अस्‍तित्‍व के गूढ़ तम प्रश्‍नों की व्‍याख्‍या जल्‍दी करने के लिए कहा था। लेकिन अब मैं बदल चुका हूं, और जिसका उत्‍तर नहीं दिया जा सकता, उस असंभव उत्‍तर के मांग में मैं नहीं करता। लेकिन अभी भी मुझे सृष्‍टि के नियम और प्रकृति की शक्‍तियों को जानने की गहन जिज्ञासा है। जिस समय मैं युवा था। उस समय से ज्‍यादा जिज्ञासा है यह सब जानने की। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे महल में आएं। और अगर आपका महल में आना संभव न हो, तो आप अपने सबसे अच्‍छे शिष्‍य में से किसी एक शिष्‍य को भेज दें, ताकि वह मुझे जो कुछ भी इन प्रश्नों के विषय में समझाया जा सकता हो समझा सके।
      थोड़े दिनों के बाद वह काफिला और संदेशवाहक वापस लौट आये। उन्‍होंने राजा को बताया कि वे जरथुस्‍त्र से मिले। जरथुस्‍त्र ने अपने आशीष भेजे है। लेकिन आपने उनको जो खजाना भेजा था,  वह उन्‍होंने वापस लोटा दिया है। जरथुस्‍त्र ने उस खजानें को यह कहकर वापस कर दिया है कि उसे तो खानों का खजाना मिल चुका है। और साथ ही जरथुस्‍त्र ने एक पत्‍ते में लपेट कर कुछ छोटा सा उपहार राजा के लिए भेजा है। और संदेशवाहक ने कहां कि वे राजा से जाकर कह दें कि इसमे ही वह शिक्षक है जो कि उसे सब कुछ समझा सकता है।   
      राजा ने जरथुस्‍त्र के भेजे हुए उपहार को खोला और फिर उसमें से उसी गेहूँ के दाने को पाया—गेहूँ का वही दाना जिसे जरथुस्‍त्र ने पहले भी उसे दिया था। राजा ने सोचा कि जरूर इस दाने में कोई रहस्‍य या चमत्‍कार होगा, इसलिए राजा ने एक सोने के डिब्‍बे में उस दाने को रखकर अपने खजानें में रख दिया। हर रोज वह उस गेहूँ के दाने को इस आशा के साथ देखता कि एक दिन जरूर कुछ चमत्‍कार घटित होगा, और गेहूँ का दाना किसी ऐसी चीज में या किसी ऐसे व्‍यक्‍ति में परिवर्तित हो जाएगा जिससे कि वह सब कुछ सीख जाएगा जो कुछ भी वह जानना चाहता है।
      महीने बीते, और फिर वर्ष पर वर्ष बीतते चले गए। लेकिन कुछ भी चमत्‍कार नहीं हुआ। अंतत: राजा ने अपना धैर्य खो दिया और फिर से बोला, ‘’ऐसा मालूम होता है, कि जरथुस्‍त्र ने फिर से मुझे धोखा दिया है। या तो वह मेरा उपहास कर रहा है। या फिर वह मेरे प्रश्‍नों के उत्‍तर जानता ही नहीं। लेकिन मैं उसे दिखा दूँगा कि मैं बिना उसकी किसी मदद के भी प्रश्नों के उत्‍तर खोज सकता हूं।‘’ फिर उस राजा ने भारतीय रहस्‍यदर्शी के पास अपने काफिले को भेजा। जिसका नाम तशंग्रगाचा था। उसके पास संसार के कौने-कौने से शिष्‍य आते थे, और फिर से उसने उस काफिले के साथ वहीं संदेशवाहक और वहीं खजाना भेजा जिसे उसने जरथुस्‍त्र के पास भेजा था।
      कुछ महीनों के पश्‍चात संदेशवाहक उस भारतीय दार्शनिक को अपने साथ लेकिन वापस लौटे। लेकिन उस दार्शनिक ने राजा से कहा, ‘’मैं आपका शिक्षक बन कर सम्‍मानित हुआ, लेकिन यह मैं साफ-साफ बता देना चाहता हूं कि मैं खास करके आपके देश में इसलिए आया हूं ताकि मैं जरथुस्‍त्र के दर्शन कर सकूँ।‘’
      इस पर राजा सोने का वह डिब्‍बा उठा लाया जिसमें गेहूँ का दाना रखा हुआ था। और वह उसे बताने लगा, ‘’मैंने जरथुस्‍त्र से कहा था कि मुझे कुछ समझाए-सिखाएं। और देखो, उन्‍होंने यह क्‍या भेज दिया है, मेरे पास। यह गेहूँ का दाना वह शिक्षक है जो मुझे सृष्‍टि के नियमों और प्रकृति की शक्‍तियों के विषय में समझाए गा। क्‍या यह मेरा उपहास नहीं?
            वह दार्शनिक बहुत देर तक उस गेहूँ के दाने की तरफ देखता रहा, और उस दाने की तरफ देखते-देखते जब वह ध्‍यान में डूब गया तो महल में चारों और एक गहन मौन छा गया। कुछ समय बाद वह बोला, ‘’मैंने यहां आने के लिए जो इतनी लंबी यात्रा की उसके लिए मुझे कोई पश्‍चाताप नहीं है, क्‍योंकि अभी तक तो मैं विश्‍वास ही करता था, लेकिन अब मैं जानता हूं कि जरथुस्‍त्र सच में ही एक महान सदगुरू है। गेहूँ का यह छोटा सा दाना हमें सचमुच सृष्‍टि के नियमों और प्रकृति की शक्‍तियों के विषय में सिखा सकता है, क्‍योंकि गेहूँ का यह छोटा सा दाना अभी और यहीं अपने में सृष्‍टि के नियम और प्रकृति की शक्‍ति को अपने में समाएँ हुए है। आप गेहूँ के इस दाने को सोने के डिब्‍बे में सुरक्षित रखकर पूरी बात को चूक रहे है।
      अगर आप इस छोटे से गेहूँ के दाने को जमीन में बो दें, जहां से यह दाना संबंधित है, तो मिट्टी का संसर्ग पाकर, वर्षा-हवा-धूप , और चाँद-सितारों की रोशनी पाकर, यह और अधिक विकसित हो जाएगा। जैसे कि व्‍यक्‍ति की समझ और ज्ञान की विकास होता है, तो वह अपने अप्राकृतिक जीवन को छोड़कर प्रकृति और सृष्‍टि के निकट आ जाता है। जिससे कि वह संपूर्ण ब्रह्मांड के अधिक निकट हो सके। जैसे अनंत-अनंत ऊर्जा के स्‍त्रोत धरती में बोए हुए गेहूँ के दाने की और उमड़ते है, ठीक वैसे ही ज्ञान के अनंत-अनंत स्त्रोत व्‍यक्‍ति की और खुल जाते है। और तब तक उसकी तरफ बहते रहते है जब तक कि व्‍यक्‍ति प्रकृति और संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एक न हो जाए। अगर गेहूँ के इस दाने को ध्‍यानपूर्वक देखो, तो तुम पाओगे कि इसमे एक और रहस्‍य छुपा हुआ है—और वह रहस्‍य है जीवन की शक्‍ति का। गेहूँ का दाना मिटता है, और उस मिटने में ही वह मृत्‍यु को जीत लेता है।
      राजा ने कहा, ‘’आप जो कहते है वह सच है। फिर भी अंत में तो पौधा कुम्‍हलाएगा और मर जाएगा। और पृथ्‍वी में विलीन हो जाएगा।
      उस दार्शनिक ने कहा, लेकिन तब तक नहीं मरता, जब तक कि वह सृष्‍टि की प्रक्रिया को पूरा नहीं कर लेता। और स्‍वयं को हजारों गेहूँ के दानों में परिवर्तित नहीं कर लेता। जैसे छोटा सा गेहूँ का दाना मिटता है तो पौधे के रूप में विकसित हो जाता है। ठीक वैसे ही जब तुम भी जैसे-जैसे विकसित होने लगते हो, तुम्‍हारे रूप भी बदलने लगते है। जीवन से और नए जीवन निर्मित होते है, एक सत्‍य से और सत्‍य जन्‍मते है, एक बीज से और बीजों का जन्‍म होता है। केवल जरूरत है तो एक कला सीखने की और वह है मरने की कला। उसके बाद ही पुनर्जन्‍म होता है, मेरी सलाह है कि हम जरथुस्‍त्र के पास चलें, ताकि वे हमें इस बारे में कुछ अधिक बताएं।
      कुछ ही दिनों के पश्‍चात वे जरथुस्‍त्र के बग़ीचे में आए। प्रकृति की पुस्‍तक ही उसकी एकमात्र पुस्‍तक थी। और उसने अपने शिष्‍यों को उस प्रकृति की पुस्‍तक को ही पढ़ने की शिक्षा दी। इन दोनों ने जरथुस्‍त्र के बग़ीचे में एक और बड़े सत्‍य की शिक्षा पाई। कि जीवन और कार्य, अवकाश और अध्‍यन, एक ही चीज है; जीने का सही ढंग सरल और स्‍वाभाविक जीवन जीना है। जीवन सृजनात्मक होना चाहिए। उसी में व्‍यक्‍ति का विकास समग्रता से और सक्रियता से होता है।
      अस्‍तित्‍व और जीवन के नियमों को पढ़ने-सिखते उनका एक वर्ष बीत गया। अंतत रात अपने नगर लौट आया और उसने जरथुस्‍त्र से निवेदन किया कि वह अपनी महान शिक्षा के सार तत्‍व को व्‍यवस्‍थित रूप से संगृहीत कर दे। जरथुस्‍त्र ने वैसा ही किया, और उसी के परिणामस्‍वरूप पारसियों की महान पुस्‍तक ‘’जेंदावेस्‍ता’’ का आविर्भाव हुआ।
      यह पूरी कहानी बस यही बताती है कि मनुष्‍य परमात्‍मा कैसे हो सकता है।
      जो कुछ मनुष्‍य में बीज रूप में छिपा हुआ है, वह अगर उद्घाटित हो जाए, प्रकट हो जाए, तो मनुष्‍य परमात्‍मा हो सकता है।
ओशो
 
 
 

संदेह

संदेह पैदा क्योंन होता है दुनिया में, संदेह पैदा होता है, झूठी श्रद्धा थोप देने के कारण। छोटा बच्चा है, तुम कहते हो मंदिर चलो। छोटा बच्चाट पुछता है किस लिए?
अभी मैं खेल रहा हूं, तुम कहते हो, मंदिर में और ज्या दा आनंद आएगा।
और छोटे बच्चेह को वह आनंद नहीं आता, तुम तो श्रद्धा सिखा रहे हो और बच्चाह सोचता है, ये कैसा आनंद, यहां बड़े-बड़े बैठे है उदास,
यहां दोड भी नहीं सकता, खेल भी नहीं सकता। नाच भी नहीं सकता, चीख पुकार नहीं कर सकता, यह कैसा आनंद। फिर बाप कहता है, झुको, यह भगवान की मूर्ति है। बच्चाा कहता है भगवान यह तो पत्थहर की मूर्ति को कपड़े पहना रखे है। झुको अभी, तुम छोटे हो अभी तुम्हा री बात समझ में नहीं आएगी। ध्या न रखना तुम सोचते हो तुम श्रद्धा पैदा कर रहे हो, वह बच्चा‍ सर तो झुका लेगा लेकिन जानता है, कि यह पत्थेर की मूर्ति है। उसे न केवल इस मूर्ति पर संदेह आ रहा है। अब तुम पर भी संदेह आ रहा है, तुम्हाेरी बुद्धि पर भी संदेह आ रहा है। अब वह सोचता है ये बाप भी कुछ मूढ़ मालूम होता है। कह नहीं सकता, कहेगा, जबत तुम बूढे हो जाओगे, मां-बाप पीछे परेशान होते है, वे कहते है कि क्यास मामला है।
बच्चेी हम पर श्रद्धा क्योंह नहीं रखते, तुम्हींा ने नष्टू करवा दी श्रद्धा। तुम ने ऐसी-ऐसी बातें बच्चेह पर थोपी, बच्चोम का सरल ह्रदय तो टुट गया। उसके पीछे संदेह पैदा हो गया, झूठी श्रद्धा कभी संदेह से मुक्तं होती ही नहीं। संदेह की जन्मेदात्री है। झूठी श्रद्धा के पीछे आता है संदेह, मुझे पहली दफा मंदिर ले जाया गया, और कहा की झुको, मैंने कहा, मुझे झुका दो, क्योंाकि मुझे झुकने जैसा कुछ नजर आ नहीं रहा।
पर मैं कहता हूं, मुझे अच्छे बड़े बूढे मिले, मुझे झुकाया नहीं गया। कहा, ठीक है जब तेरा मन करे तब झुकना,
उसके कारण अब भी मेरे मन मैं अब भी अपने बड़े-बूढ़ो के प्रति श्रद्धा है। ख्या ल रखना, किसी पर जबर्दस्ती़ थोपना मत, थोपने का प्रतिकार है संदेह। जिसका अपने मां-बाप पर भरोसा खो गया, उसका अस्तित्व़ पर भरोसा खो गया। श्रद्धा का बीज तुम्हामरी झूठे संदेह के नीचे सुख गया।
--एस धम्मो सनंतनो 
 
 
विद्रोह धर्म की बुनियाद 

      दुनिया में केवल जैन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्‍महत्‍या का आदर करता है। अब यह हैरान होने की तुम्‍हारी बारी है। निश्चित ही वे इसे आत्‍महत्‍या नहीं कहते। वे इसको सुंदर धार्मिक नाम देते है—संथारा। मैं इसके खिलाफ हूं। खासकर जिस ढंग से यह किया जाता है—यह बहुत ही क्रूर और हिंसात्‍मक है। यह आश्‍चर्य की तो बात है कि जो धर्म अहिंसा में विश्‍वास करता है। वह धर्म संथारा, आत्‍महत्‍या का उपदेश देता है। तुम इसको धार्मिक आत्‍म हत्‍या कह सकते हो। लेकिन आत्‍महत्‍या तो आत्‍महत्‍या ही है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो मरता ही है।
      मैं इसके खिलाफ क्‍यों हूं, मैं किसी आदमी के आत्‍महत्‍या करने के अधिकार के विरोध में नहीं हूं। नहीं, यह तो मनुष्‍य का मूलभूत अधिकार होना चाहिए। अगर मैं जीवित रहना नहीं चाहता तो किसी दूसरे को  मुझे जीवित रखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं जैनियों के आत्‍महत्‍या के विचार के विरोध में नहीं हूं। लेकिन वह विधि...उनकी विधि है कुछ न खाना, खाना छोड़ देते है, बिलकुल नहीं खाते। इस प्रकार बेचारे आदमी को मरने में करीब-करीब नब्‍बे दिन लगते है। यह यातना है। सताना है, तुम इसे और नहीं सुधार सकते, इससे अधिक कष्‍ट सोचा भी नहीं जा सकता। अडोल्‍फ हिटलर को लोगो को सताने का बढ़ीया तरीका नहीं सूझा।
      वे अपने बालों को कभी नहीं काटते, वे उन्‍हें अपने हाथों से उखाड़ते है1 देखो, कितना बढ़िया तरीका है।
हर साल जैन मुनि अपने बालों को उखाड़ता है—मुछ और दाढ़ी और शरीर के सभी बालों को अपने हाथों से उखाड़ता है। वे कोई यंत्र के, टेक्नोलॉजी के खिलाफ है। और वे इसे तर्क कहते है। किसी बात की तर्कित अंत तक जाना। अगर तुम उस्‍तरे का उपयोग करो तो वह टेक्नोलॉजी है। यहां तक कि ये तथाकथित पर्यावरण के हिमायती भी अपनी दाढ़ी बनाते रहते है। बिना यह जाने कि वे प्रकृति के विरूद्ध एक अपराध कर रहे है।
      जैन मुनि अपने बाल उखाड़ता है—चुपचाप एकांत में नहीं, क्‍यों‍कि एकांत तो उन्‍हें कभी मिलता ही नहीं। कोई भी बात गुप्‍त न रखना, पूरी तरह से सार्वजनिक होना, अपने आपकेा सताने का हिस्‍सा है। वे बाजार में नग्‍न खड़े होकर अपने बाल उखाड़ते है। भीड़ निश्चित ही ताली बजा-बजा कर सराहना करती है। और जैन, यद्यपि उनको बडी हमदर्दी अनुभव होती है......तुम उनकी आंखों में आंसू भी देख सकते हो। अचेतन में उन्‍हें भी बड़ा मजा आता है—और बीना टिकट बिना पैसे के।

      लेकिन किसी को भी या स्‍वयं को कष्‍ट पहुंचाना, सताना एक अपराध है।
      इसके साथ तुम समझ पाओगें कि में कोर्इ अपमानजनक, कोई अशिष्‍ट व्‍यवहार नहीं कर रहा था। मैं बहुत ही संगत, प्रासंगिक प्रश्‍न पूछ रहा था। उस दिन से मैंने जीवन भर के लिए सब प्रकार की मूख्रताओ, अंधविश्‍वासों—संक्षिप्‍त से धामिर्क कचरा, बुलशिट—के खिलाफ झगड़ा किया। बुलशिट शब्‍द अच्‍छा है, बहुत कुछ कह देता है, संक्षिप्‍त में।
      उस दिन मैंने अपना जीवन एक खेल, विद्रोही की तरह शुरू किया और मैं अपनी अंतिम सांस तक विद्रोही ही बना रहूंगा—या शायद उसके बाद भी, किसे पता है। जब मेरे पास शरीर नहीं होगा तो मेरे पास मेरे प्रेमियों के हजारों शरीर होंगे। में उन्‍हें उकसा सकता हूं—और तुम जानते हो कि मैं बहकाने बाला हूं। आने वाली सदियों तक मैं उनके दिमाग में विचार डाल सकता हूं। ठीक वही मैं करने बाला हूं। इस शरीर की मृत्‍यु के साथ मेरा विद्रोह नहीं मर सकता। मेरी क्रांति और भी अधिक तीव्रता से चलती रहेगी, क्‍योंकि तब इसे आगे बढ़ाने के लिए अनेक शरीर होगें, अनगिनत हाथ होंगे और बहुत आवाजें होंगी।
      वह दिन बहुत महत्‍वपूर्ण था, ऐतिहासिक रूप से महत्‍वपूर्ण था। उस दिन के साथ मैंने हमेशा उस दिन को याद किया है जब जीसस ने यहूदियों के मंदिर में रबाईयों से बहस की थी। वे मुझसे कुछ बड़े थे, शायद आठ साल के या नौ साल के। उन्‍होंने जिस प्रकार से बहस की उसने उनके समस्‍त जीवन-प्रवाह को निर्धारित किया।
      मुझे जेन मुनि का नाम याद नहीं है, शायद उसका नाम शांति सागर था। निश्चित ही वह शांति का सागर नहीं था। इसलिए उसका नाम तक मैं भूल गया। उसका अर्थ हो सकता है शांति, या मौन। ये वे बुनियादी अर्थ है। उसमें दोनों नहीं थे। न तो वह शांत था। न ही मौन था। बिलकुल भी नहीं। न ही तुम कह सकते हो कि उसमें कोई तूफान न था। क्‍योंकि वह इतना क्रोधित हो गया कि उसने चिल्‍ला कर मुझे बैठ जाने को कहा।
      मैंने कहा: ‘मुझे अपने घर में बैठ जाने के लिए कोई नहीं कह सकता। हाँ में आपको जाने के लिए कह सकता हूं। लेकिन मैं आपको जाने के लिए भी नहीं कहूंगा, क्‍योंकि अभी कुछ और प्रश्‍न पूछने है। कृपया नाराज न हो। याद रखें आना नाम, शांति सागर –शांति और मौन के सागर। आप छोटे बच्‍चे से इतना परेशान मत होइए।’
      वे शांत थे कि नहीं इसकी फ़िकर किये बिना मैंने अपनी नानी से पूछा, जो इस बात चीत को सुन कर बहुत हंस रही थी। आप क्‍या कहती है नानी। क्‍या मुझे इनसे और प्रश्‍न पूछने चाहिए या इन्‍हें अपने घर से जाने के लिए कहूं, नानी ने कहा: ‘तुम जो पुछना है पूछ सकते हो अगर ये अत्‍तर न देते इन्‍हें कह दो दरवाजा खुला है, वे जा सकते है।’
      यही वह महिला थी जिन्‍हें मैंने प्रेम किया। यही वह महिला थी जिन्‍होंने मुझे विद्रोही बनाया। यहां तक कि मेरे नाना भी भौचक्‍के रह गए कि इस प्रकार उन्‍होंने मेरा साथ दिया वह तथाकथित तुरंत चुप हो गया जिस क्षण उसने देखा कि मेरी नानी मेरे पक्ष ले रही है। केबल वे ही नहीं, सारे गांव के लोग तुरंत मेरे पक्ष में हो गए। बेचारा जैन मुनि बिलकुल ही अकेला रह गया।
      मैंने उससे कुछ और प्रश्‍न पूछे: ‘आपने कहा किसी बात में तब तक विश्‍वास नहीं करना जग तक कि तुमने स्‍वयं उसका अनुभव न किया हो। मुझे इसमें सच दिखाई देता है इसलिए यह प्रश्‍न.........’
      जैनी मानते है कि सात नरक है। छठवें नरक तक वापस आने की संभावना है, लेकिन सातवां शाश्‍वत है। शायद सातवां ईसाइयों का नरक है, क्‍योंकि वहां भी एक बार तुम उसमें गए तो हमेशा के लिए गए।
      मैंने कहा: ‘आपने सात नरकों की बात की, इसलिए प्रश्‍न उठता हैं कि क्‍या आपने सातवें नरक की यात्रा की है, क्‍या आप सातवें नरक में गए है? अगर वहां गए होते तो यहां नहीं हो सकते थे। अगर आप वहां गए तो किस अधिकार से कहते है कि सातवां नरक है, या अगर आप सात पर जोर देना चाहते है तो यह सिद्ध करें कि कम से कम एक आदमी शांति सागर सातवें नरक से वापस आया है।‘
      उसकी तो बोलती बंद हो गई। वह अवाक रह गया। वह विश्‍वास ही न कर सका कि एक बच्‍चा ऐसे प्रश्‍न पूछ सकता था। आज मुझे भी विश्‍वास नहीं हो सकता। मैं कैसे इस प्रकार का प्रश्‍न पूछ सका। इसका एक ही उत्‍तर में दे सकता हूं कि मैं अशिक्षित था, बिलकुल ही अज्ञानी था। ज्ञान, जानकारी तुम्‍हें बहुत चालबाज बना देती है। मैं चालाक नहीं था। मैंने वही प्रश्‍न पूछा जो कोई भी कोई बच्‍चा पूछ सकता था अगर वह शिक्षित न होता तो शिक्षा मासूम बच्‍चों के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है। शायद बच्‍चों की स्‍वतंत्रता इस संसार की अंतिम स्‍वतंत्रता होगी।
      मैं बिलकुल ही अज्ञानी, अंजान और सरल था। मैं पढ-लिख नहीं सकता था। अंगुलियों से ज्‍यादा गिन भी नहीं सकता था। यहां तक कि आज भी जब मुझे कुछ गिनना हाता है तो अपनी अंगुलियों से शुरू करता हूं। और अगर ऐ अंगुलि छूट गई तो गड़बड़ हो जाती है।
      वह उत्‍तर नहीं दे सका। मेरी नानी खड़ी हुई और कहा: ‘आपको उत्‍तर देना ही होगा। ऐसा मत सोचो कि एक बच्‍चा पूछ रहा है। मैं भी पूछ रही हूं, और आपकी मेजबान हूं।’
      अब फिर से मुझे एक अन्‍य जैन परंपरा के बारे में बताना पड़ेगा। जब जेन मुनि भोजन लेने के लिए किसी के घर आता है तो भोजन करने के बाद वह आशीर्वाद के रूप में परिवार को उपदेश देता है। उपदेश गृहिणी को संबोधित होता है।
      मेरी नानी ने कहा कि ‘आज आपने हमारे यहाँ भोजन किया है, इस घर की गृहिणी होने के कारण मैं भी यही प्रश्‍न पूछ रही हूं। क्‍या आप सातवें नरक में गए है। लेकिन तब आप यह नहीं कह सकते कि सात नरक है।‘
      बेचारा मुनि मेरी नानी जैसी सुंदर स्‍त्री का सामना न कर सका। वह इतना घबरा गया कि वह उठ कर घर के बहार जाने लगा। मेरी नानी ने चिल्‍ला कर कहा: ‘रुको, जाओ मत। मेरे बच्‍चें के प्रश्न का अत्‍तर कौन देगा? वह और भी कुछ पूछना चाहता है। आप किस तरह के आदमी हैं। बच्‍चें के प्रश्‍नों से भाग रहे है।‘
      चारों और सन्नाटा छा गया—ठीक जैसा यहां पर है—किसी ने कुछ न कहा मुनि ने आंखें झुका ली और तब फिर मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पुछना। मेरे पहले दो प्रश्‍नों का अत्‍तर नहीं दिया गया और तीसरा मैंने इसलिए नहीं पूछा क्‍योंकि मैं घर के मेहमान को लज्जित नहीं करना चाहता। मैं पीछे हटता हुं। और मैं सच में ही वहाँ से चला दिया  और मुझे यह देख कर बडी खुशी हुई कि मेरी नानी भी मेरे पीछे-पीछे चली आई।
      मेरे नाना ने मुनि को विदा किया। लेकिन जैसे ही वह घर से बाहर निकला मेरे नाना तुंरत घर के भीतर आए और मेरी नानी से पूछा, ‘तुम पागल तो नहीं हो गर्इ हो, पहले तो तुमने इस लड़के का साथ दिया जो जन्‍मजात मुसीबत खड़ी करने वाला लड़का है। और फिर तुम मेरे गुरु को बिना प्रणाम किए ही इसके साथ चली गई।‘
      मेरी नानी ने कहा: ‘वह मेरा गुरु नहीं है। और जिसे तुम जन्‍म जात मुसीबत खड़ी करने बाला समझ रहे हो वह तो अभी बीज है। कोई नहीं जानता की वह आगे चल कर क्‍या बनेगा।‘
      अब मुझे मालूम हे कि उस बीज ने कौन सा रूप धारण किया। जब तक कोई पैदाइशी उपद्रवी न हो तब तक वह बुद्ध पुरूष नहीं बन सकता।
      और मैं कोई गौतम बुद्ध जैसा पारंपरिक बुद्ध ही नहीं हूँ, वे तो बहुत पारंपरिक है। मैं जो़रबा दि बुद्धा हूं। मैं पूर्व और पश्चिम का मिलन हूं, सच तो यह ही कि मैं पूर्व और पश्चिम में उचे और नीचे में, पुरूष और स्त्री में, अच्‍छे और बुरे में, परमात्मा और शैतान में बाँटता ही नहीं हूं। नहीं, हजार बार नहीं। मैं कभी किसी चीज को खँड़-खंड नहीं करता। अभी तक जो खंड़-खंड़ किया गया है। मैं उसे मिलाता हूं, यहीं मेरा काम है।‘
      मेरे पूरे जीवन में क्‍या हुआ, इसे समझने के लिए वह दिन बहुत महत्‍वपूर्ण है। क्‍योंकि जब तक तुम बीज को न समझोगे, तुम वृक्ष और फूलों और शाखाओं से झाँकते हुए चाँद से चूक जाओगे।
      उसी दिन से मैं हमेशा हर प्रकार की यातना के खिलाफ रहा हूँ। मैं हर तरह की तपश्‍चर्या के खिलाफ रहा हूं। निश्चित ही ये शब्‍द मैंने काफी बाद में जाने, पर शब्‍दों से क्‍या फर्क पड़ता है। मुझे त‍ब भी कुछ बदबू आ रही थी। तुम जानते हो कि मुझे सब तरह की यातनाओं से एलर्जी है मैं चाहता हूं कि हर मनुष्‍य पूरी तरह से जीए। जीवन का पूरी तरह से भोग करे।
न्‍यूनतम पर जीना मेरा ढंग नहीं है। मैं तो चाहता हूं कि हर व्‍यक्ति जीने के अंतिम बिंदु को छू ले। और वह अंतिम बिंदु के पार जा सके तो और भी अच्छा है। आगे बढ़ो। इंतजार मत करो, इंतजार में समय बरबाद मत करो।
      न्‍यूनतम तो कायर का तरीका है। अगर मेरा बस चले तो उनकी अधिकतम सीमा को न्‍यूनतम सीमा बना दूँ।  हम तारों पर पहुंचने की कोशिश कर रहे है। फ़िज़िक्स का भी यही लक्ष्‍य है, अंतत: हमारी गति प्रकाश की गति के बराबर हो जाए। अगर उस गति को हमने प्राप्‍त न किया तो हम नष्‍ट हो जाएंगे। अगर हम प्रकाश की गति उपलब्ध कर लें तो हम किसी भी मरती हुई पृथ्‍वी से या ग्रह से हट सकते है। एक न एक दिन हर पृथ्‍वी, हर ग्रह, हर तारा मरेगा, नष्‍ट होगा। इससे तुम कैसे बचोगे, तुम्‍हें बडी तीव्र टैकनॉलॉजी की जरूरत होगी। यह पृथ्‍वी सिर्फ चार हजार वर्ष में मर जाएगी। तुम कुछ भी करो, इसे बचाया नहीं जा स‍कता। प्रतिदिन यह अपनी मृत्‍यु के करीब आ रही है......और तुम एक घंटे में तीस मील की गति से जाने की कोशिश कर रहे हो। अरे, प्रति सेकेंड एक सौ छियासी हजार मील की गति से चलने की कोशिश करो। यही प्रकाश की गति है।
      मैं जीवन को समाप्‍त कर देने के खयाल के खिलाफ नहीं हूं, अगर कोई अपने जीवन का अंत कर देना चाहता है तो निश्चित ही यह उसका अधिकार है। ले‍किन इसके लिए शरीर को लंबे समय तक पीडित करने और सताने के मैं बिल‍कुल खिलाफ हुं। जब ये शांति सागर मरे तो इन्‍हें मरने के लिए कम से कम एक सौ दिन भूखा रहना पड़ेगा। एक सामान्‍य स्‍वस्‍थ आदमी को नब्‍बे दिन तक भूखा रहने की क्षमता है। अगर वह असाधारण रूप से स्‍वस्‍थ तो वह और भी अधिक दिन तक भूखा रह सकता है।
      तो याद रखो कि मैं उस व्‍यक्ति के साथ कठोर नहीं था। उस संदर्भ में मेरा प्रश्‍न बिलकुल उचित था—शायद और भी उचित था, क्‍योंकि वह उत्‍तर नहीं दे सका था। और आश्‍चर्य है आज तुम्‍हें बताना कि वह सिर्फ मेरे प्रश्‍न पूछने की ही शुरूआत नहीं थी बल्कि लोगों के उत्‍तर ने देने की भी शुरूआत थी। पिछले पैंतालीस वर्षो में किसी ने भी मेरे प्रश्‍नों के उत्‍तर नहीं दिया। मैं अनेक तथाकथित आध्‍यात्मिक लोगों से मिला हूं, लेकिन किसी ने कभी भी मेरे कोई भी प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं दिया। एक प्रकार से उस दिन ने ही मेरे समस्‍त जीवन कि दिशा को निश्चित कर दिया।
      शांति सागर बहुत नाराज हो गए, लेकिन मैं बहुत खुश था। और मैंने इसे मैंने अपने नाना से छिपाया नहीं। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, वे भले ही नाराज हो गए, लेकिर मुझे तो बिलकुल सही लग रहा है। आपका गुरु साधारण योग्‍यता का आदमी है। आपको उससे अधिक अच्‍छे गुरु की खोज करनी चाहिए।’
      यहां तक वे हंस पड़े और उन्‍होंने कहा: ‘शायद तुम ठीक कहते हो, लेकिन अब इस उम्र में गुरु बदलना बहुत व्‍यावहारिक नहीं होगा।’ उन्होंने मेरी नानी से पूछा: ‘क्‍यों तुम्‍हारा क्या विचार है।‘
      मेरी नानी—जैसी कि वे स्‍पष्‍ट वक्‍ता थी—ने कहा: ‘बदलने के लिए कभी देर नहीं होती। इसमें देर-अबेर का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर आप देखते हो कि आपने जो चुना है वह सही नहीं है, तो उसे बदल डालों। जल्‍दी करों उतना अच्‍छा है, अब तुम बूढे हो गये हो। ऐसा मत करो कि कहो कि मैं बूढा हो रहा हूं इसलिए बदल नहीं सकता। एक युवक न बदले तो चलेगा, लेकिन बूढा आदमी ऐसा नहीं कर सकता—और तुम काफी बूढे हो गए हो।‘
      और बस कुछ वर्ष बाद ही वे गुजर गये। लेकिन वे अपना गुरु बदलने का साहस न कर सके। वे उसी पुरानी लीक पर चलते रहे।
      मेरी नानी ऐ अदभुत प्रभावशाली शक्ति बन सकती थी। वे सिर्फ ऐ गृहि‍णी बनने के लिए नहीं थी। वे उस छोटे से गांव में सीमित रहने के लिए नहीं बनी थी। उनके बारे में पूरे विश्‍व को जानना चाहिए था। शायद मैं उनका माध्‍यम हूं। शायद उनहोंने स्‍वयं को मुझमें उड़े़ल दिया हो। उनका मुझसे इतना गहरा प्रेम था कि मैंने अपनी असली मां को कभी असली मां नहीं समझा मैं हमेशा अपनी नानी को ही अपनी असली मां समझता रहा।
      नानी ने ही मुझे पहली बार यह ब‍ताया कि सही भी गलत आदमी के हाथ में गलत हो जाता है। और गलत भी सही आदमी के हाथ में सही हो जाता है। इसलिए तुम इसकी चिंता मत करो कि तुम क्‍या कर रहे हो। केवल एक ही बात याद रखो कि तुम क्‍या हो रहे हो। ‘’करना’’ और ‘’होना’’ यही एकमात्र प्रश्‍न है। सभी धर्म करने पर जोर देते है, लेकिन में तो होने को महत्‍व देता हूं। अगर तुम्‍हारा होना, तुम्‍हारी बीइंग सही है। तो फिर तुम जो भी करोगे वह सही हो्गा। तब फिर तुम्‍हारे लिए कोई और आदेश नहीं है। केवल एक यही है कि तुम्‍हारा मात्र ‘होना’ इतनी समग्रता से हो कि उसमें कोई छाया भी न आ सके। त‍ब तुम कुछ भी गलत नहीं कर सकते हो। सारी दुनिया भले ही कहे कि यह गलत है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, केवल तुम्‍हारी अपनी बीइंग, अपनी आत्‍मा ही महत्‍वपूर्ण है।
      मुझे इसकी चिंता नहीं कि क्राइस्‍ट को सूली लगी। क्‍योंकि मुझे मालूम है कि सूली पर भी वे अपने भीतर पूर्ण विश्राम में थे। वे इतने विश्राम में थे कि वे प्रार्थना कर सके: ‘हे पिता, सच तो यह है कि उन्होंने पिता भी नहीं कहा। ‘अब्‍बा’ जो कि और भी सुंदर शब्‍द है। ‘अब्‍बा। इन लोगो को माफ़ कर देना, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है।’
      फिर करने पर जोर दिया जा रहा है, अफसोस कि वे सूली पर लटके हुए इस आदमी के ‘होने’ को देख सके। केवल ये होना ही महत्‍वपूर्ण है।
      मैं नहीं मानता कि मैंने उस जेन मुनि से इस प्रकार के अजीब और परेशान करने बाले प्रश्‍न पूछ कर कोर्इ गलती की। शायद मैंने उसकी सहायता ही की। शायद एक दिन उसकी समझ में आ जाए, और अगर उसमें साहस होता तो वह समझ जाता, लेकिन वह कायर था, वह भग खड़ा हुआ। और तब से मेरा अनुभव है कि ये सब तथाकथित महात्‍मा और संत कायर है। मैंने आज तक कोई ऐसा महात्‍मा—हिंदू, मुसलमान, ईसाई, या बौद्ध—नहीं देखा, जो कहा जो सके कि सच में विद्रोही है। जब तक कोई विद्रोही न हो तक कोई धार्मिक नहीं हो सकता। विद्रोह धर्म की बुनियाद है।
--ओशो
 
 
 

Sunday, December 9, 2012

मेडिसिन और मेडिटेशन

http://www.achhikhabar.com/hindi-stories/

http://www.oshoworld.com/discourses/audio_hindi.asp?album_id=106

http://www.oshoworld.com/?page=6

http://www.oshoworld.com/onlinemaghindi/september12/htm/

कबीर के इन वचनों को समझना बड़ा क्रांतिकारी होगा। तुम भरोसा ही न करोगे कि ऐसी बात संत कह सकेंगे। लेकिन संत ही ऐसी बात कह सकते हैं। क्योंकि वे ही परम विद्रोही हैं, और वे तो वही कहते हैं जो ठीक है
तुम जैसे भी हो, ठीक उससे उलटा होना ही मार्ग है। जिस दिशा में तुम चल रहे हो, उससे उलटा चल सकोगे तो पहुँचोगे।

गंगा बहती है सागर की तरफ। मूल स्रोत पीछे छूट गया है — गंगोत्री पीछे छूट गई है। आगे तो दूरी ही दूरी होगी। गंगोत्री तक पहुंचने का यह मार्ग नहीं है। गंगा को उलटा लौटना पड़े।

तुम्हारी चेतना की गंगा भी जब उलटी लौटेगी — गंगोत्री की तरफ लौटेगी, मूल स्रोत की तरफ, तभी तुम पहुँच पाओगे। क्योंकि, जिसे खोया है, उसे मूल स्रोत में ही खोया है। जिसे खोया है, वह आगे नहीं है; उसे तुम कहीं पीछे छोड़ आये हो।

इस बात को बहुत ठीक से विचार कर लेना। कबीर का यह सूत्र इसी तरफ इशारा है।

और कबीर कहते हैं, यह सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है जिसे साधु को सोच लेना है। जिसे तुम खोज रहे हो उसे पीछे छोड़ आये हो। कभी वह तुम्हारी संपदा थी, विस्मृत हो गई। कभी तुम उसके मालिक थे और अब तुम भटक गये हो। अस्तित्व का समस्त आनंद कभी तुम्हारा था। निर्दोषता तुम्हारी थी। तुम साधु पैदा ही हुए थे। सभी साधु की तरह पैदा होते है। साधुता स्वभाव है। आसुधता अर्जित की जाती है। असाधुता तुम्हारी कमाई है, जो तुमने सीखी है। अपनी होशियारी से तुम असाधु हुए हो, निर्दोषता में तुम साधु थे ही।

सभी बच्चे साधु की तरह पैदा होते हैं — परम साधु की भांति। और संसार का जहर, शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, भीड़, धीरे-धीरे उन्हें स्वभाव से हटा देती है। वे अपने केन्द्र से वंचित हैं। फिर जीवन भर उसी केंद्र की तलाश चलती है। लेकिन तलाश चलती है समाज के नियमों के अनुसार। और यही उपद्रव है।

समाज के नियमों ने ही तुम्हें केन्द्र से च्युत किया। उन्हीं नियमों को मान कर तुम खोज करते हो आनंद की। तुम और दूर होते चले जाते हो। तुम और भटक जाते हो। जिसने तुम्हें हटाया है स्वयं से, तुम उसकी ही मान कर चलते हो। समाज तुम्हारा गुरु हो गया है। और तुमने अपने अन्तःकरण की आवाज को सुनना बिलकुल बंद कर दिया है। और समाज ने एक झूठा अन्तःकरण तुम्हारे भीतर पैदा कर दिया है।

जब तुम चोरी करने जाते हो, तब तुम्हारे भीतर कोई कहता है, चोरी मत करो। जब तुम बुरा काम करने जाते हो, तुम्हारे भीतर कोई कहता है, बुरा मत करो। लेकिन यह तुम्हारे समाज के द्वारा दिया गया अन्तःकरण है। यह तुम्हारी अपनी आत्मा की आवाज नहीं है। यह समाज ही बोल रहा है।

समाज ने तुम्हें सिखा दिया है कि क्या बुरा है, क्या अच्छा है। और इसलिए अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग अंतःकरण होगा। अगर तुम्हारा अंतःकरण ही बोलता हो — वही जो परमात्मा ने तुम्हें दिया हो, अछूता समाज से — तो उसकी आवाज तो सारी दुनिया में सभी युगों में एक ही होगी। वह तो शाश्वत होगा। अभी तो अगर तुम हत्या करने जाओ तो तुम्हारा अतःकरण — जो कि वस्तुतः तुम्हारा नहीं है, समाज का धोखा है; तुम्हारे वास्तविक अंतःकरण के ऊपर एक और अंतःकरण थोप दिया गया है समाज की शिक्षा का — वह कहता है, हत्या मत करो। फिर कल तुम मजिस्ट्रेट हो और वही अंतःकरण अब नहीं कहता कि हत्या की सजा मत दो। अब तुम मजे से सैकड़ों को लटका देते हो सूली पर।

या कल तुम युद्ध के मैदान पर चले जाते हो। समाज का अतःकरण कल तक कहता था कि हत्या पाप है। चीटीं भी मारते तो भीतर अपराध अनुभव होता था। युद्ध के मैदान में तुम दिल खोल के लोगों को काटते हो। और वही समाज का अंतःकरण तुमसे कहता है, तुम महान कार्य कर रह हो। तुम्हारी चिता पर मेले लगेंगे। तुम बड़े वीर हो। देश तुम्हारा सदा-सदा इतिहास स्मरण रखेगा, गुणगान करेगा।

अगर तुम्हारा ही अंतःकरण बोलता हो तो चाहे तुम हत्या करने जाओ, चाहे मजिस्ट्रेट की तरह किसी को फांसी की सजा दो, चाहे युद्ध के मैदान पर किसी की छाती पर बंदूक तानो — उस अंतःकरण की आवाज एक ही होगी, कि नहीं, गलत कर रहे हो; मिटाना गलत है; नष्ट करना गलत है। क्योंकि परमात्मा स्रष्टा है। और तुम विध्वंस कर रहे हो? — तो तुम परमात्मा से दूर जा रहे हो।

तुम्हारा वास्तविक अंतःकरण हर परिस्थिति में बेशर्त कहेगा, हिंसा बुरी है। लेकिन समाज के द्वारा जो अंतःकरण दिया है वह कभी तो कहेगा, हिंसा बुरी है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा, हिंसा ठीक है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा बेपरवाह हिंसा करो — यही पुण्य है, यही धर्म है — जब समाज की सुविधा होगी। ऐसा लगता है, हत्या का सवाल नहीं है; समाज की सुविधा-असुविधा का सवाल है।

अगर तुम इस अंतःकरण से भरे रहे तो तुम अपने अंतःकरण को कभी भी न खोज पाओगे। और तुम इसी के सहारे उसे खोजने की कोशिश कर रहे हो। नीति के मार्ग से तुम धर्म तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हो और नीति ही वह व्यवस्था है जिसने तुम्हें धर्म से वंचित किया है।

कबीर के इन वचनों को समझना बड़ा क्रांतिकारी होगा। तुम भरोसा ही न करोगे कि ऐसी बात संत कह सकेंगे। लेकिन संत ही ऐसी बात कह सकते हैं। क्योंकि वे ही परम विद्रोही हैं, और वे तो वही कहते हैं जो ठीक है। क्या होगा परिणाम, समाज भला-बुरा कैसा सोचेगा, इसकी उन्हें चिंता नहीं।
-ओशो
कहै कबीर मैं पूरा पाया
प्रवचन नं. 7 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)


विचार, स्वप्न-मन की धूल हैं
एक झेन कथा है।
एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा।
वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर देखते रहना, गौर से जांच करना।

तो उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया, नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो गया था।
इसने पूछा कि महाराज, और सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल जम जाती है। समय के बीतने से धूल जम जाती है।
यह तो वापस चला आया। गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है। वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता है, रात बारह बजे तक घिसता रहा, फिर सुबह पांच बजे से--और घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ! इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और सुबह उठते ही से फिर घिस। क्योंकि रात भी सपनों के कारण धूल जम जाती है। समय के बीतते ही धूल जम जाती है।
विचार और स्वप्न हमारे भीतर के मन की धूल हैं।
-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग-8
प्रवचन नं. 79 से संकलित


कबीर
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है

कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; वे-पढ़े-लिखे हैं, इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की — शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।
कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे — जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गये। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।

और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।
कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी हैं, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।
बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए सम्राट अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास सब है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है-धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो — तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, तो भी यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यह दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।
बुद्ध को समझोगे तो हाथ-पैर ढीले पड़ जाएंगे।
बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस-मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुंदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।
कबीर गरीब हैं, और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण-सी पत्नी है, और जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।
गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी, वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां-महल सूना हो गया!
आदमी महत्त्वाकांक्षा में जीता है। महत्त्वाकांक्षा कल की — और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा... दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति न रही — छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।
बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किये गये थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।
कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां-बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था — बच्चे को-पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आये नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य में लिखा था। यह भिखारी भी जान गया कि धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है; लेकिन बुद्ध-जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं है। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं-शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गये, तो तुम भी पहुंच सकते हो।
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं-‘मसी कागज छुओ न हाथ।’
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब-किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे — कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है — चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है — बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है — और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
-ओशो
सुनो भई साधो
प्रवचन नं. 1 से संकलि



 मेडिसिन और मेडिटेशन
अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से
चिकित्सा कोई सामान्य व्यवसाय की तरह नहीं है। उसे सिर्फ किसी टेक्नोलाज़ी की तरह मत समझो, क्योंकि उसमें तुम्हें आदमियों पर काम करना पड़ता है। जब तुम किसी व्यक्ति की चिकित्सा करते हो तो ऐसा नहीं कि तुम मशीन को ठीक कर रहे हो। केवल जानकारी सवाल नहीं है, यह प्रेम का गहरे से गहरा सवाल है।
चिकित्सक के हाथ में मनुष्य का पूरा जीवन होता है, और मनुष्य का जीवन जटिल घटना है। कभी तुम से गलती हो जाए, तो वह गलती किसी व्यक्ति के जीवन के लिए घातक हो सकती है। इसलिए जब किसी की चिकित्सा का काम अपने हाथ में लो तो पूरी तरह प्रेम से भरे हुए जाओ।
चिकित्सा के क्षेत्र में जो लोग इस तरह जाते हैं, जैसे वे इंजीनियरिंग में जा रहे हों वे लोग डॉक्टर बनने के लिए ठीक नहीं हैं--वे गलत लोग हैं। जो लोग जीवन के प्रति प्रेम से भरे हुए नहीं है, वे चिकित्सा के व्यवसाय में गलत हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं होगी; वे मनुष्यों के साथ मशीनों जैसा व्यवहार करेंगे। वे मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जैसा कोई मोटर मेकेनिक कार के साथ करता है। वे मरीज के प्राणों को तो महसूस ही नहीं कर पाएंगे। वे व्यक्ति का इलाज नहीं करेंगे, केवल उसके लक्षणों का इलाज करेंगे। यह बात अलग है कि वे जो भी करेंगे उसके प्रति वे पूरी तरह विश्वास से भरे होंगे--टेक्नीशियन को अपने काम पर विश्वास होता ही है।
लेकिन जब तुम मनुष्यों के साथ काम कर रहे हो तो तुम इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते। वहां झिझक स्वाभाविक है। व्यक्ति कुछ भी करने से पहले दो तीन-बार सोचता है क्योंकि एक कीमती जीवन का सवाल है — जीवन जिसका सृजन नहीं किया जा सकता, जो एक बार गया तो बस गया। और हर व्यक्ति अनूठा होता है, उसकी जगह कभी भरी नहीं जा सकती, उसके जैसा कोई और न तो कभी हुआ और न होगा। चिकित्सक आग से खेल रहा होता है। झिझक स्वाभाविक है!
मरीज के प्रति श्रद्धा का भाव रखो। और उसका इलाज करते हुए दिव्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। डॉक्टर ही मत बने रहो, आरोग्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। बस वहां मरीज हो परमात्मा हो — तुम प्रार्थना की एक दशा में आ जाओ और परमात्मा को अपने मरीज की ओर बहने दो। मरीज तो बीमार है, वह उस ऊर्जा से संबंधित नहीं हो पा रहा। वह उस ऊर्जा से दूर पड़ गया है। वह स्वयं अपना उपचार करने की भाषा भूल गया है। वह असहाय अवस्था में है, उस पर तुम कुछ आरोपित नहीं कर सकते।
जो व्यक्ति स्वयं स्वस्थ हो, वह यदि माध्यम बन जाए तो बहुत सहयोगी हो सकता है। और यदि वह स्वस्थ व्यक्ति शरीर की संरचना के विषय में भी जानता हो तो उसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि दिव्य ऊर्जा उसे सूक्ष्म इशारे दे सकती है। तुम्हें उन इशारों को डीकोड भर करना है। यदि तुम चिकित्साशास्त्र के विषय में जानते हो तो बहुत आसानी से उन संकेतों के अर्थ खोल सकते हो। और तब तुम मरीज के साथ कुछ नहीं करते, परमात्मा ही करता है। तुम स्वयं को परमात्मा के हाथों में उपलब्ध कर देते हो, और चिकित्सा की अपनी पूरी जानकारी को काम करने देते हो। परमात्मा की आरोग्य ऊर्जा और तुम्हारी जानकारी के मिलन से जो घटित होता है वह उपयोगी होता है। और उससे कभी नुकसान नहीं हो सकता। तो स्वयं को विदा करो: परमात्मा को होने दो। चिकित्सा के क्षेत्र में उतरो तो ध्यान भी शुरू करो।
और तुम्हें शायद पता न हो कि अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से। पुराने समय में वैद्य और संत अलग-अलग व्यक्ति नहीं हुआ करते थे? वह एक ही व्यक्ति होता था।
-ओशो
गाड इज नॉट फॉर सेल से अनुवादित

जिंदगी को जिंदा जीना...,,,तनाव और विश्राम

तनाव और विश्राम
हम शरीर में जो तनाव महसूस करते हैं, उसका मूल कारण है कुछ बनने की इच्छा। हर आदमी कुछ न कुछ बनने की चेष्टा कर रहा है। जो जैसा है, उसके साथ संतुष्ट नहीं है। हमारा होना स्वीकृति नहीं है, उसे इंकार किया जा सकता है और दूर कहीं एक लक्ष्य निर्मित किया जाता है। तो मूलभूत तनाव है-जो तुम हो और तुम बनना चाहते हो, उसके बीच की दूरी।

तुम जिसकी भी आकांक्षा करते हो वह भविष्य में पूरी होगी। आज तुम जो भी हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। लक्ष्य जितना असंभव होगा, उतना तनाव अधिक होगा। तो भौतिकवादी आदमी इतना तनावपूर्ण नहीं होगा, जितना कि आध्यात्मिक व्यक्ति, क्योंकि उसका आदर्श व लक्ष्य बड़ा ऊंचा है।

तुम और तुम्हारे लक्ष्य के बीच जितनी दूरी होगी उतना तनाव अधिक, दूरी जितनी कम होगी, तनाव भी कम। यदि तुम स्वयं से पूर्णतया संतुष्ट हो तो तनाव बिल्कुल नहीं है। तुम इस क्षण में जीते हो। मेरी दृष्टि में, तुम्हारे होने और बनने के बीच कोई दूरी नहीं हो तो तुम धार्मिक हो।

इस दूरी के कई तल हो सकते हैं तुम जिसकी आकांक्षा करते हो, अगर वह कोई शारीरिक वस्तु है तुम्हारे भौतिक शरीर मे तनाव होगा। जैसे तुम सुंदर दिखना चाहते हो-इसका तनाव तुम्हारे भौतिक शरीर में शुरू होगा। यदि वह बना रहा, मजबूत होता चला गया तो भीतर के गहरे तलों पर पहुँचेगा।

यदि तुम मानसिक शक्ति के लिए तरस रहे हो तो मानसिक तल पर तनाव शुरू होगा और वहां से फैलेगा। इसका फैलना ऐसे ही है, जैसे तुम तालाब में पत्थर फेंको तो वह एक खास बिंदु पर गिरता है, लेकिन उसकी लहरें फैलती चली जाती हैं। तो तनाव तुम्हारे सात शरीरों में से किसी भी शरीर में शुरू हो सकता है, लेकिन इसका कारण वह बना रहता है-तुम्हारे होने और बनने के बीच की दूरी।

तनाव से मुक्त होने का एक ही उपाय है-स्वयं का संपूर्ण स्वीकार। संपूर्ण स्वीकार से चमत्कार घटित होता है। यह एकमात्र चमत्कार है। ऐसे व्यक्ति को खोजना, जिसने स्वयं को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है, एक आश्चर्यजनक घटना है।

अस्तित्व में कोई तनाव नहीं हैं। तनाव पैदा होता है गैर—अस्तित्वगत, काल्पनिक संभावनाओं से। वर्तमान में कोई तनाव नहीं है। कल्पना तुम्हें भविष्य की और दौड़ाती है, उसी से तनाव पैदा होता है। आदमी जितना कल्पनाशील हो, उतना तनाव में जीता है। तब फिर कल्पना विनाशक हो जाती है।

कल्पना रचनात्मक भी हो सकती है। यदि तुम्हारी कल्पना की पूरी क्षमता इस क्षण में केन्द्रित हो, आगे नहीं दौड़ रही हो तो तुम देख सकते हो कि तुम्हारा होना एक कविता है। तुम्हारी कल्पना शक्ति जीने में खर्च हो रही है, योजनाएं बनाने में नहीं। वर्तमान में जीना ही तनाव मुक्त जीना है।

...यदि तुम्हारा शरीर तनाव मुक्त वर्तमान में जी सके तो सही अर्थों में स्वास्थ्य का जन्म होता है। शरीर ऐसे विश्राम को उपलब्ध होता है, जो तुमने कभी नहीं जाना होगा। तब उसके लिए क्षण ही शाश्वत हो जाता है। फिर तो तुम भोजन ले रहे हो तो खाना ही सब कुछ होगा। उसके आगे न कुछ है, न पीछे कुछ है। भोजन करने वाला कोई नहीं होगा, भोजन की क्रिया ही सब कुछ होगी।

यदि तुम दौड़ लगा रहे हो और दौड़ना तुम्हारी समग्रता बन गई हैं, दौड़ने से जो संवेदनाएं उठ रही हैं, उनके साथ यदि तुम एक हो गए हो, उनसे अलग-थलग नहीं हो, तो तुम्हारा शरीर एक विधायक स्वास्थ्य को अनुभव करता है। शरीर के तल पर तुमने विश्रामपूर्ण अंतरतम को अनुभूत कर लिया।
-ओशो
'दी साइक्लोजी ऑफ दी इसोटेरिक'



जिंदगी को जिंदा जीना...
जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। और अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता हैं
मैंने सुना है कि एक बगीचे में एक छोटा सा फूल—घास का फूल—दीवाल की ओट में ईटों में दबा हुआ जीता था। तूफान आते थे, उस पर चोट नहीं हो पाती थी, ईटों की आड़ थी। सूरज निकलता था, उस फूल को नहीं सता पाता था, उस पर ईटों की आड़ थी। बरसा होती थी, बरसा उसे गिरा नहीं पाती थी, क्योंकि वह जमीन पर पहले ही से लगा हुआ था। पास में ही उसके गुलाब के फूल थे।
एक रात उस घास के फूल ने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैं कब तक घास का फूल बना रहूंगा। अगर तेरी जरा भी मुझ पर कृपा है तो मुझे गुलाब का फूल बना दे। परमात्मा ने उसे बहुत समझाया कि तू इस झंझट में मत पड़, गुलाब के फूल की बड़ी तकलीफें हैं। जब तूफान आते हैं, तब गुलाब की जड़ें भी उखड़ी-उखड़ी हो जाती हैं। और जब गुलाब में फूल खिलता है, तो खिल भी नहीं पाता कि कोई तोड़ लेता है। और जब बरसा आ आती है तो गुलाब की पंखुड़िया बिखरकर जमीन पर गिर जाती हैं। तू इस झंझट में मत पड़, तू बड़ा सुरक्षित है। उस घास के फूल ने कहा कि बहुत दिन सुरक्षा में रह लिया, अब मुझे झंझट लेने का मन होता है। आप तो मुझे बस गुलाब का फूल बना दें। सिर्फ एक दिन के लिए सही, चौबीस घंटे के लिए सही। पास-पड़ोस के घास के फूलों ने समझाया, इस पागलपन में मत पड़, हमने सुनी हैं कहानियाँ कि पहले भी हमारे कुछ पूर्वज इस पागलपन में पड़ चुके हैं, फिर बड़ी मुसीबत आती है। हमारा जातिगत अनुभव यह कहता है कि हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं। पर उसने कहा कि मैं कभी सूरज से बात नहीं कर पाता, मैं कभी तूफानों से नहीं लड़ पाता, मैं कभी बरसा को झेल नहीं पाता। उनके पास के फूलों ने कहा, पागल, जरूरत क्या है? हम ईंट की आड़ में आराम से जीते हैं। न धूप हमें सताती, न बरसा हमें सताती, न तूफान हमें छू सकता।
लेकिन वह नहीं माना और परमात्मा ने उसे वरदान दे दिया और वह सुबह गुलाब का फूल हो गया। और सुबह से ही मुसीबतें शुरु हो गयी। जोर की आंधियां चलीं, प्राण का रोआं-रोआं उसका कांप गया, जड़े उखड़ने लगीं। नीचे दबे हुए उसके जाति के फूल कहने लगे, देखा पागल को, अब मुसीबत पड़ा। दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ। फूल तो खिले थे, लेकिन कुम्हलाने लगे। बरसा आई, पंखुड़िया नीचे गिरने लगीं। फिर तो इतने जोर की बरसा आई कि सांझ होते-होते जड़े उखड़ गई और वह वृक्ष, वह फूलों का, गुलाब के फूलों का पौधा जमीन पर गिर पड़ा। जब वह जमीन पर गिर पड़ा, तब वह अपने फूलों के करीब आ गया। उन फूलों ने उससे कहा, पागल, हमने पहले ही कहा था। व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई। मुश्किलें ले ली नई अपनी हाथ से। हमारी पुरानी सुविधा थी, माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, लेकिन सब आदी था, परिचित था, साथ-साथ जीते थे, सब ठीक थे।
उस मरते हुए गुलाब के फूल ने कहा, ना समझो, मैं तुमसे भी यही कहूंगा कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में छिपे हुए घास का फूल होने से चौबीस घंटे के लिए फूल हो जाना बहुत आनंदपूर्ण है।
मैंने अपनी आत्मा पा ली, मैं तूफानों से लड़ लिया, मैंने सूरज से मुलाकात ले ली, मैं हवाओं से जूझ लिया, मैं ऐसे ही नहीं मर रहा हूं, मैं जी कर मर रहा हूं। तुम मरे हुए जी रहे हो।
निश्चित ही जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। और अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता हैं।
-ओशो
पुस्तक: कृष्ण स्मृति
प्रवचन नं. 7 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. पर भी उपलब्ध है।)

मंदिर के गुंबद का रहस्य ...मां का जन्म



मंदिर के गुंबद का रहस्य
मेरी पुकार मुझ तक लौट के आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया
जैसे कि इस मुल्क में मंदिर बने। और कोई तीन चार तरह के मंदिर खास तरह के मंदिर हैं जिनके रूप में फिर सारे मंदिर बने। इस मुल्क में जो मंदिर बने वे आकाश कि आकृति में हैं जो गुंबद है मंदिर का वह आकाश कि आकृति में है। और प्रयोजन यह है कि अगर आकाश के नीचे बैठ कर मैं ओम का उच्चार करूं तो मेरा उच्चार खो जायेगा, मेरी शक्ति बहुत कम है, विराट आकाश है चारों तरफ। मेरा उच्चार लौट कर मुझ पर नहीं बरस सकेगा, खो जायेगा। मैं जो पुकार करूंगा, वह पुकार मुझ तक लौट के नहीं आएगी, वह अनंत में खो जाएगी। मेरी पुकार मुझ तक लौट के आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया। वह आकाश छोटी प्रतिकृति है, ठीक अर्ध गोलाकार, जैसा आकाश पृथ्वी को चारों तरफ छूता है ऐसा एक छोटा आकाश निर्मित किया है। उसके नीचे मैं जो भी पुकार करूंगा, मंत्रोच्चार करूंगा, ध्वनि करूंगा, वह सीधी आकाश में खो नहीं जाएगी। गोल गुंबद उसे वापस लौटा देगा। जितना गोल गुंबद, उतनी सरलता से वह वापस लौट आएगी -उतनी ही सरलता से। और उतनी ही ज्यादा प्रतिध्वनियां उसकी पैदा होंगी। अगर ठीक व्यवस्था से गुंबद मंदिर का बना हो। और फिर तो ऐसे पत्थर भी खोज लिए गए जो ध्वनियों को वापस लौटने में बड़े सक्षम हैं।

जैसे कि अजंता का एक बौद्ध चैत्य है। उसमे लगे पत्थर ठीक उतनी ही ध्वनि को तीव्रता से लौटाते हैं, उतनी ही चोट को प्रतिध्वनि करते हैं, जैसे तबला। जैसे आप तबले पर चोट कर दें, ऐसा पत्थर पर चोट करें तो इतनी आवाज होगी। अब वह बहुत विशेष मंत्रो को, जो बहुत सूक्ष्म हैं, साधारण गुंबद नहीं लौटा पाएगा, उसके लिए उन पत्थरों का उपयोग किया गया है।

क्या प्रयोजन है? जब आप ओम का उच्चार करते हैं-और सारे गुंबद के नीचे ओम का उच्चार हुआ है, वह ओम के उच्चार के लिए ही निर्मित किया गया है-जब सघनता से, बहुत तीव्रता से आप ओम का उच्चार करते हैं, और मंदिर का गुंबद सारे उच्चार को वापस आप पर फेंक देता है, तो एक वर्तुल निर्मित होता है, एक सर्किल निर्मित होता है। उच्चार का, ध्वनि का, लौटती ध्वनि का एक सर्किल निर्मित हो जाता है। मंदिर का गुंबद आपकी गूंजी हुई ध्वनि को आप तक लौटा कर एक वर्तुल निर्मित करवा देता हैं। उस वर्तुल का आनंद ही अद्भुत है।

अगर आप खुले आकाश के नीचे ओम का उच्चार करेंगे, वह वर्तुल निर्मित नहीं होगा और आपको कभी आनंद का पता नहीं चलेगा। वह जब वर्तुल निर्मित होता है तभी आप, तब आप सिर्फ पुकारने वाले नहीं हैं, पाने वाले भी हो जाते हैं। और उस लौटती हुई ध्वनि के साथ दिव्यता कि प्रतीति प्रवेश करने लगती है। आपकी की हुई ध्वनि तो मनुष्य की है, लेकिन जैसे ही वह लौटती है, वह नये वेग और नई शक्तियों को समाहित करके वापस लौट आती है।

इस मंदिर को, इस मंदिर के गुंबद को मंत्र के द्वारा ध्वनि-वर्तुल निर्मित करने के लिए प्रयोग किया गया था। और अगर बिलकुल शांत, एकांत स्थिति में आप बैठ कर उच्चार करते हों और वर्तुल निर्मित हो, तो जैसे ही वर्तुल निर्मित होगा, विचार बंद हो जाएंगे। वर्तुल इधर निर्मित हुआ, उधर विचार बंद।

जैसा कि मैंने कई बार कहा है, स्त्री पुरुष के संभोग में वर्तुल निर्मित हो जाता है शक्ति का। और जब वर्तुल निर्मित होता है तभी संभोग का क्षण समाधि का इशारा करता है। अगर पद्मासन या सिद्धासन में बैठे बुद्ध और महावीर कि मूर्तियां देखें तो वे भी वर्तुल ही निर्मित करने के अलग ढंग हैं। जब दोनों पैर जोड़ लिए जाते हैं और दोनों हाथ पैरों के ऊपर रख दिए जाते हैं तो पूरा शरीर वर्तुल का काम करने लगता है। खुद के शरीर कि विद्युत फिर कहीं बाहर नहीं निकलती पूरी वर्तुलाकार घूमने लगती है। एक सर्किट निर्मित होता है। और जैसे ही सर्किट निर्मित हो जाता है वैसे ही विचार शून्य हो जातें हैं। अगर विद्युत कि भाषा में कहें तो आपके भीतर विचारों का जो कोलाहल है वह आपकी ऊर्जा के वर्तुल न बनने कि वजह से हैं। वह वर्तुल बना कि ऊर्जा समाहित और शांत होने लगती है।

तो मंदिर के गुंबद से वर्तुल बनाने कि बड़ी अद्भुत प्रक्रिया है और अंतरंग अर्थ उसके हो गए।
-ओशो
‘गहरे पानी पैठ’ पुस्तक के
प्रवचन माला 1 से संकलित एक अंश
पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध
है
मां का जन्म
बच्चा जब पैदा होता है तो बच्चा ही नहीं पैदा होता, उसके साथ मां भी पैदा होती है
लोजिम नाम के एक चिकित्सक ने आदमी की चेतना पर भरोसा किया और हजारों स्त्रियों को दुख और दर्द से रहित बच्चे पैदा करवाने की व्यवस्था की है। वह कॉन्शियस कोआपरेशन का मेथड है-कि जब बच्चा पैदा हो तो मां मेडिटेटिवली, ध्यानपूर्ण ढंग से बच्चे को जन्म में सहयोगी बनें। वह राजी हो जाए, लड़े न, रेसिस्ट न करे। जो दर्द है वह बच्चे के पैदा होने से नहीं होता, वह मां की लड़ाई से पैदा होता है। वह पूरे वक्त जन्म देने के यंत्र को सिकोड़ रही है। वह डर रही है कि दर्द होगा; भयभीत है कि बच्चा पैदा न हो जाए। यह फियर सेंटर्ड रेसिस्टेंस उसको बच्चे को पैदा होने से रोक रहा है और बच्चा पैदा होना चाह रहा है। उन दोनों के बीच लड़ाई चल रही है-मां और बेटे के बीच लड़ाई है! उस लड़ाई में दर्द है। दर्द स्वाभाविक नहीं है, सिर्फ संघर्ष है, रेसिस्टेंस है।

इस रेसिस्टेंस को दो तरह से हम हल कर सकते हैं। एक कि शरीर की तरफ से हम मां को बेहोश कर दें। लेकिन ध्यान रहे, जो मां बेहोशी में अपने बच्चे को जन्म देगी वह पूरे अर्थों मां कभी न हो पाएगी। क्योंकि उसका कारण है। बच्चा जब पैदा होता है तो बच्चा ही नहीं पैदा होता, उसके साथ मां भी पैदा होती है। बच्चे का पैदा होना दोहरा जन्म है। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ एक साधारण स्त्री मां हो जाती है, जो उसके पहले वह नहीं थी। अगर बेहोशी में बच्चा पैदा हुआ तो मां और उसके बच्चे के बीच के बुनियादी संबंध को हमने विकृत किया। मां पैदा नहीं हो पाएगी, नर्स रह जाएगी पीछे।

इसलिए मैं राजी नहीं हूं कि केमिकल ढंग से, शारीरिक ढंग से मां की बेहोशी में बच्चे को जन्म दिया जाए। मां पूरी कॉन्शियस होनी चाहिए अपने बच्चे के जन्म के क्षण में, क्योंकि उसी कॉन्शियसनेस में मां का भी जन्मा होगा।

अगर यह दूसरी बात सही मालूम पड़े, तो इसका मतलब यह हुआ कि मां की चेतना की ट्रेंनिग होनी चाहिए बच्चे के जन्म के वक्त। मां को सिखाना चाहिए कि जन्म के क्षण को वह ध्यानपूर्ण ढंग से ले ले। ध्यान का अर्थ मां के लिए दो होंगे। एक तो वह रेसिस्ट न करे, विरोध न करे। जो हो रहा है, उसके होने में सहयोगी हो। जैसे नदी बह रही है, जहां गढ्ढा मिल जाता है वहीं बह जाती है। जैसे हवाएं बह रही हैं। जैसे वृक्ष से सूखे पत्ते गिर रहे हैं। कहीं कुछ खबर नहीं होती, वृक्ष से सूखा पत्ता नीचे गिर जाता है। ऐसे मां पूरी तरह, जो घटना घट रही है, उसमें सहयोगी हो-टोटल कोआपरेशन, पूर्ण सहयोग।

अगर मां अपने बच्चे को जन्म देते वक्त पूर्णतया सहयोगी हो जाए, कोई विरोध न करें, कोई भय न करे और जन्म की जो घटना घट रही है उसमें पूरी ध्यानपूर्ण होकर रसलीन हो जाए, तो पेनलेस बर्थ हो जाएगा, दर्द उससे विदा हो जाएगा। और यह मैं वैज्ञानिक आधारों पर कह रहा हूं; हजारों प्रयोग किए गए हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। वह दर्द मुक्त हो जाएगा।

और ध्यान रहे, इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। पहला तो जिससे हमें दर्द मिले पहले ही क्षण में, उसके प्रति हमारे दुर्भाव बनने शुरू हो जाते हैं। जिससे हमारा संघर्ष हो पहले ही क्षण में, उससे हमारी दुश्मनी की यात्रा शुरू हो जाती है। उससे हमारी मैत्री के संबंध में बाधा पड़ जाती है। जिससे हमारी पहले ही कांफ्लिक्ट शुरू हो गई हो, उसके साथ कोआपरेशन बांधना बहुत मुश्किल हो जाएगा, ऊपरी हो जाएगा।

लेकिन जिस क्षण हम सहयोग से और सचेतन रूप से बच्चे को जन्म दे पाएं...। तो यह बड़े मजे की बात है। अब तक हमने प्रसव-पीड़ा शब्द सुना है, प्रसव-आनंद नहीं, क्योंकि हुआ नहीं। लेकिन अगर पूर्ण सहयोग हो तो प्रसव आनंद भी शु़रू हो जाएगा। तो मैं सिर्फ पेनलेस बर्थ के पक्ष में नहीं हूं, ब्लिसफुल बर्थ के पक्ष में नहीं हूं।

अगर हम चिकित्सा का उपयोग करें तो ज्यादा से ज्यादा, एट दि मोस्ट, पेनलेस बर्थ हो सकता है, लेकिन ब्लिसफुल बर्थ नहीं हो सकता। लेकिन अगर चेतना की तरफ से हम शुरू करें, तो एक आनंदपूर्ण जन्म हो सकता है। और हम पहली ही घड़ी से मां और बेटे के बीच एक अतंर्सबंध-सचेतन....।
-ओशो
पुस्तक हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्
प्रवचनमाला 1 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 
शासन की आवश्यकता क्यों?
शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए; अन्यथा बड़ी अराजकता होगी, जीना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए शासन की जरूरत है। लेकिन बस एक सीमा तक
शासन चाहता है समाज, व्यक्ति नहीं; समूह, व्यक्ति नही; क्योंकि व्यक्ति होने में ही खतरा है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता की मांग है। व्यक्तित्व की आखिरी गरिमा परिपूर्ण मुक्ति है; और शासन का अर्थ ही बंधन है।
दूसरी बात, जैसे ही शासन बढ़ता है वैसे-वैसे शासन के नीचे दबे लोग दुर्बल होते जाते हैं। शासन का पेट ही नहीं भर पाता; लोगों का पेट कैसे भरे?
इसे हम चिकित्साशास्त्र से आसानी से समझ सकते हैं।
चिकित्सक कहते हैं कि मनुष्य की हड्डियों पर थोड़ी सी चर्बी चाहिए; वह चर्बी हड्डियों की रक्षा करती है। वह चर्बी हड्डियो के आस-पास एक उष्मा, एक गरिमा बनाए रखती है। वह चर्बी जरूरत-गैर-जरूरत के समय, संकट के समय आत्मरक्षा का उपाय है। अगर बहुत दिन भूखा रहना पड़े तो वह चर्बी तुम्हारा भोजन बन जाएगी।
हर आदमी करीब-करीब तीन महीने भूखा रह सकता है इतनी चर्बी उसके शरीर में है। इतना होना जरूरी है, अन्यथा आदमी मुश्किल में होगा। लेकिन फिर ऐसी घटना घटती है कि कुछ लोग रूग्ण हो जाते हैं और चर्बी बढ़ती चली जाती है। फिर चर्बी शरीर को बचाती नहीं, मारती है फिर हड्डियो की सुरक्षा नहीं रहती, हड्डियों को तोड़ने वाला बोझ हो जाती है। फिर हृदय को उतनी चर्बी को खींचना मुश्किल हो जाता है, तो हृदय पर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं। फिर चर्बी इतनी बढ़ जाती है कि मस्तिष्क तक उर्जा नहीं पहुंचती, तो भीतर मस्तिष्क जड़ होने लगता है। ऐसी घटना घट सकती है कि चर्बी इतनी हो जाए कि आदमी हिल-डुल न सके; उसकी गति समाप्त हो जाए; उसका जीवन मृत्यु जैसा हो जाए।

शासन थोड़ा सा जरूरी है। अगर शासन बढ़ता जाए तो वह ऐसा ही है जैसे किसी आदमी की चर्बी बढ़ती जाए। चर्बी एक मात्रा में बचाती है; एक मात्रा के पार जाने पर मारती है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि इस पृथ्वी पर मनुष्य के आगमन के पूर्व बड़े विराट जानवर थे। हाथी उनके समक्ष कुछ भी नहीं। हाथी से दस-दस गुने बड़े जानवर थे। उनके अस्थिपंजर उपलब्ध हैं। हाथी से दस गुना बड़ा जानवर, बड़ा शक्तिशाली जानवर था, लेकिन वह बिल्कुल तिरोहित हो गया। उसका एकमात्र वंशज बची है छिपकली। छिपकली इतनी छोटी सी! वे छिपकलियां थी हाथियों से दस गुनी बड़ी। अचानक वे कैसे विदा हो गई दुनिया से? वैज्ञानिकों ने बहुत खोज करके पाया कि उनकी चर्बी इतनी बढ़ गयी कि उस चर्बी का ढोना मुश्किल हो गया। चर्बी के बोझ के नीचे दब कर ही वे प्राणी मर गए।

शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए; अन्यथा बड़ी अराजकता होगी, जीना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए शासन की जरूरत है। लेकिन बस एक सीमा तक। वहीं तक शासन की जरूरत है जहां तक एक व्यक्ति को दूसरे की जीवन-स्वतंत्रता में बाधा डालने से रोकने की जरूरत है। बस! कोई व्यक्ति किसी के जीवन में बाधा न डाले, इतने दूर तक शासन का काम है।
लेकिन यह तो निषेधात्मक काम हुआ कि तुम लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा करने को नियत किये गए थे उनके अपशोषक हो जाते हैं। शासन छाती पर बैठ जाता है; प्रजा सिकुड़ती चली जाती है। धीरे-धीरे प्रजा का सब मांस खो जाता है, अस्थियां शेष रह जाती हैं-अस्थिपंजर!
ऐसी क्षणों में बगावत होनी स्वाभाविक है। लोग उपद्रवी हो जाएंगे। अगर लोग उपद्रवी हैं तो उसका अर्थ इतना ही है कि शासन लोगों के ऊपर अधिक भार की तरह हो गए हैं। कर बढ़ते जाते हैं, टैक्सेशन बढ़ता जाता है; नियम बढ़ते जाते हैं; स्वतंत्रता कम होती जाती है। तुम्हारे चारों तरफ लोहे की दीवाल बन जाती है नियमों की, हिलना-डुलना मुश्किल हो जाता है। और इस सबको भी लोग बरदाश्त कर लें; पेट भी भूखा होने लगता है। जीवन नीचे गिरने लगता है; जरूरत की चीजें भी उपलब्ध नहीं होतीं। लोग मरते हैं, और शासन लोगों की मृत्यु से भी जीने की कोशिश करता है। ऐसी घड़ी में बगावत स्वाभाविक है, लोग उपद्रवी हो जाएंगे। और कोई न कोई उपद्रवी लोगों को भड़काने के लिए तैयार मिल जाएगा।

लोग स्वयं उपद्रवी नहीं है; लोग बड़े शांत हैं। लोगों की क्षमता अपार है। लोग कितना बरदाश्त करते हैं, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। लोगों ने सदियों तक बरदाश्त किया है; सब तरह की तकलीफ झेल ली है। क्योंकि उपद्रव में उतरने का अर्थ होता है, अपने को भी उपद्रव में डालना। लोग चाहते नहीं कि उपद्रव हो। लेकिन एक ऐसी घड़ी आ जाती है संकट की जब कि जीवन में कोई अर्थ नहीं रह जाता, जीना ही मुश्किल हो जाता है। उस अंतिम घड़ी में, मरता क्या न करता; उस घडी में ही लोग उपद्रव के लिए राजी होते हैं, और तब भी लोग राजी होते हैं, ऐसा कहना कठिन है; जब जो लोग शासन में है, उनके विरोधी लोग जो शासन में नहीं हैं, वे लोगों को राजी करते हैं।

लोगों ने अब तक कोई क्रांति नहीं की। लोगों का संतोष अपार है। लोग सब तरह की कठिनाइयां बरदाश्त करके चुपचाप जी लेना चाहते हैं। क्योंकि जीने में इतना रस है कि कौन उसे उपद्रव में डाले। लेकिन जब जीना मुश्किल ही हो जाए, रोटी भी उपलब्ध न हो, पानी भी उपलब्ध न हो; तब समझो कि लोग भूख, पीड़ा में सूख गए होते हैं, सूखा ईंधन हो गए होते हैं, तब कोई उपद्रवी, जो शासन-सत्ता में होना चाहता है और नहीं हो पाया, वह जरा सी चिनगारी लगा दे, जरा सी चकमक चला दे बगावत की, कि फिर दावानल उठ जाता है। भूख आग बन जाती है। सभी क्रांतिया भूख से पैदा होती है। लोग मरने की हालत में हो जाते हैं, तभी लड़ने को तैयार होते हैं। अन्यथा लोग धरती जैसे हैं-सब सहते हैं।
ओशो
पुस्तकः ताओ उपनिषद भाग-6
प्रवचन माला 119 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री एवं पुस्तक में उपलब्ध है




संत कवि जगजीवन
‘‘जगजीवन जैसे बेपढ़े-लिखे संतों की वाणी में जो बल है वह बल शब्दों का नहीं है, वह उनके शून्य का बल है। शब्दों की सपंदा उनके पास बड़ी नहीं है, कामचलाऊं हैं; बोल-चाल की भाषा है। लेकिन बोल-चाल की भाषा में भी अमृत ढाला है’’
-ओशो
छोटा बच्चा था न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे कहता हूं की अकसर सीधे सरल लोगों को जो बात सुगमता से घट जाती है। वही बात जो बुद्धि से बहुत भर गए हैं और इरछे तिरछे हो गए हैं उनको बड़ी कठिनाई से घटती है। युगपत क्रांति हो गई। जिसको झेन फकीर सडन इनलाइटमेंट कहते हैं, एक क्षण में बात हो गई ऐसी जगजीवन को हुई।

प्यास, त्वरा, तीव्रता, अभीप्सा-पद शब्दों को याद रखो। कुतूहल से नहीं होगा कि चलो देखें, क्या होता है अगर गुरु सर पर हाथ रखे। कुछ भी नहीं होगा। और जब कुछ भी नहीं होगा तो कहोगे कि सब फिजूल है। जिज्ञासा से रखने कि शायद कुछ हो, तो भी नहीं होगा। जब तक कि अभीप्सा से न रखो। होना ही है, हुआ ही है इधर हाथ छुआ कि वहां हो जाना है-ऐसी श्रद्धा से मांगो तो जरुर होता है, निश्चित हो जाता है। सदा हुआ है। इस जगत के शाश्वत नियमों में से एक नियम है कि जो पूर्णता से प्यासा होगा उसकी प्रार्थना सुन ली जाती है। उसकी प्रार्थना पहुंच जाती है।

उस दिन बुल्लेशाह ने ही हांथ नहीं रखा जगजीवन पर, बुल्लेशाह के माध्यम से परमात्मा का हाथ जगजीवन के सिर पर आ गया। टटोल तो रहा था, तलाश तो रहा था। बच्चे की ही तलाश थी-निर्बोध थी, अबोध थी लेकिन प्रकृति से झलकें मिलनी शुरू हो गई थीं। कोई रहस्य आवेषित किए है सब तरफ से इसकी प्रतीति होने लगी थी, इसके आभास शुरू हो गए थे।

आज जो अचेतन में जगी हुई बात थी, चेतन हो गई। जो भीतर पक रही थी आज उभर आयी। जो कल तक कली थी, बुल्लेशाह के हाथ रखते ही फूल हो गई। रूपांतरण क्षण में हो गया। जगजीवन ने फिर कोई साधना इत्यादि नहीं की। बुल्लेशाह से इतनी ही प्रार्थना की, कुछ प्रतीक दे जाएं। याद आएगी बहुत, स्मरण होगा बहुत। कुछ और तो न था, बुल्लेशाह ने अपने हुक्के में से एक सूत का धागा खोल लिया-काला धागा, वह दायें हांथ पर बांध दिया जगजीवन के। और गोविन्दशाह ने भी अपने हुक्के में से एक धागा खोला-सफेद धागा और वह भी दायें हाथ पर बांध दिया।

जगजीवन को मानने वाले लोग जो सत्यनामी कहलाते हैं-थोड़े से लोग हैं-वे अभी भी अपने दायें हाथ पर काला और बायें पर सफेद धागा बांधते हैं। मगर उसमें अब कुछ सार नहीं है। वह तो बुल्लेशाह ने बांधा तो सार था। कुछ काले सफेद धागे में रखा है क्या? कितने ही बांध लो, उनसे कुछ होनेवाला नहीं है। वह तो जगजीवन ने मांगा था, उसमे कुछ था। और बुल्लेशाह ने बांधा था उसमे कुछ था। न तो जगजीवन हो, न बांधनेवाला बुल्लेशाह है। बांधते रहो।

इस तरह मुर्दा प्रतीक हाथ में रह जाते हैं। कुछ और नहीं था तो धागा ही बांध दिया। और कुछ पास था भी नहीं। हुक्का ही रखते बुल्लेशाह, और कुछ पास रखते भी नहीं थे। लेकिन बुल्लेशाह जैसा आदमी अगर हुक्के का धागा भी बांध दे तो रक्षाबंधन हो गया। उसके हाथ से छूकर साधारण धागा भी असाधारण हो जाता है।

और प्रतीक भी था। गोविन्द्शाह ने सफेद धागा बांध दिया, बुल्लेशाह ने काला धागा बांध दिया। मतलब? मतलब कि काले और सफेद दोनों ही बंधन हैं। पाप भी बंधन है, पुण्य भी बंधन है। शुभ भी बंधन है, अशुभ भी बंधन है। यह बुल्लेशाह कि देशना थी। यह उनका मौलिक जीवन-मंत्र था।

अच्छा तो बांध लेता है, जैसे बुरा बांधता है। नरक भी बांधता है, स्वर्ग भी बांधता है। इसलिए तुम बुरे से तो छूट ही जाना, अच्छे से भी छूट जाना। न तो बुरे के साथ तादात्य करना, न अच्छे के साथ तादात्य करना। तादात्य ही न करना। तुम तो साक्षी मानना अपने को कि मैं दोनों का द्रष्टा हूं। लोहे कि जंजीरे बांधती हैं सोने की जंजीरे भी बांध लेती हैं। जिसको तुम पापी कहते हो वह भी कारागृह में है, जिसको तुम पुण्यात्मा कहते हो वह भी कारागृह में है। चैंकोगे तुम।

चोरी तो बांधती ही है, दान भी बांध लेता है। अगर दान में दान की अकड़ है की मैंने दिया-अगर यह भाव है तो तुम बांध गए। जहां ‘मैं’ है वहां बंधन है। अगर दान में यह अकड़ नहीं है की मैंने दिया, परमात्मा का था। उसी ने दिया, उसी ने लिया, तुम बीच में आए ही नहीं, तो दान की तो बात ही छोड़ो, चोरी भी नहीं बांधती। अगर तुम अपने सारे कर्ता-भाव को परमात्मा पर छोड़ दो, फिर कुछ भी नहीं बांधता। फिर तुम नरक में भी रहो, तो मोक्ष में हो। कारागृह में भी स्वतंत्र हो। शरीर में भी जीवनमुक्त हो। लेकिन दोनों के साक्षी बनना।

ऐसा सूक्ष्म सन्देश था उसमें। यह कुछ कहा नहीं गया कहने की जरुरत न थी। वह जो हाथ रखा था गुरु ने और वह जो जीवन ऊर्जा प्रवाहित हुई थी और भीतर जो स्वच्छ स्थिति पैदा हुई थी, उस स्वच्छ स्थिति को कुछ कहने की जरुरत न थी। ये प्रतीक पर्याप्त थे।

उसी दिन से जगजीवन शुभ-अशुभ से मुक्त हो गये। उन्होंने घर भी नहीं छोड़ा। बड़े हुए, पिता ने कहा शादी कर लो, तो शादी भी कर ली। गृहस्थ हो गए। कहां जाना है? भीतर जाना है। बाहर कोई यात्रा नहीं है। काम-धाम में लगे रहे और सबसे पार और अछूते बने रहे जल में कमलवत।

ऐसे गैर पढ़े लिखे लेकिन असाधारण दिव्य पुरूष के वचनों में हम प्रवेश करें।
फिर नजर में फूल महकें दिल में फिर शमाएं जली।
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम।।
जिसके भीतर प्यास है उन्हें तो इस तरह की यात्राओं की बात ही बस पर्याप्त होती है। फिर नजर में फूल महके उनकी आंखे फूलो से भर जाती हैं।
-ओशो
पुस्तकः नाम सुमिर मन बावरे
प्रवचन 1 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 
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संन्यासः भगौड़ापन नहीं...अहंकार त्यागने वाले ही महापुरूष होते हैं कर्म कीजिए भाग्य आपका गुलाम बन जाएगा

संन्यासः भगौड़ापन नहीं...
संन्यास का अर्थ ही होता है, अपने अकेलेपन में रस, दूसरे में रस का त्याग
एक युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था। युवक था अभी, बहुत कच्ची उम्र का था। जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था, मां-बाप से ऊब गया था-इकलौता बेटा था। मां-बाप की मौजूदगी धीरे-धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां-बाप का बड़ा मोह था युवक पर, ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे। एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।’ थक गया होगा, घबड़ा गया होगा। 'संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था, लेकिन ये मां-बाप से किसी तरह पिंड छूट जाये। और कोई उपाय नहीं दीखता था। तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की। मां-बाप तो रोने लगे, चिल्लाने-चीखने लगे, यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना। उनका मोह उससे भारी था।
लेकिन जितना उनका मोह, उतना ही वह भागा-भागा रहने लगा। जितने जोर से तुम किसी को पकड़ोगे, उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से भाग गया। दूर कहीं जहां बुद्ध विहार करते थे उसने जाकर दीक्षा भी ले ली, भिक्षु हो गया। बाप ने बड़ी खोजबीन की, सब जगह खोजा, फिर उसे याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी-कभी बात करता था कि संन्यस्त हो जाऊंगा, तो वह बुद्ध की तलाश में गया। मिल गया बेटा वहां। बाप ने तो बहुत रोना-धोना किया, छाती पीटी, कपड़े फाड़ डाले, लोटा जमीन पर। लेकिन बेटा, जितना बाप रोया-चिल्लाया उतना ही मजबूती से जिद्द बांध लिया कि मैं यहां से जाऊंगा नहीं।
आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्षु हो गया’। बेटे को छोड़ तो सकता नही था, तो उसने भी संन्यास ले लिया। 'फिर उसकी पत्नी और बेटे की मां, वह कुछ दिन तक तो राह देखी, बाप घर लौटा नहीं, तो वह उसकी तलाश में निकली। उसे भी खयाल आया कि बेटा कभी-कभी कहता था भिक्षु हो जाऊंगा, कहीं भिक्षु न हो गया हो। वह वहां पहुंची तो वह देखकर चकित रह गयी-बेटा ही भिक्षु नहीं हो गया है, बाप भी भिक्षु हो गया है! वह बहुत रोयी, पीटी, चिल्लायी, लोटी, बड़ा शोरगुल मचाया, बड़ी भीड़ जमा कर ली। बाप तो जाने को राजी था, लेकिन वह बेटा कहे कि मैं जा नहीं सकता। आखिर कोई और उपाय न था तो मां भी दीक्षित हो गयी।’ वे तीनों संन्यासी हो गये।
अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस न था, घर में विरस था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना देना नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता था। स्वभावतः पत्नी कहां जाए! तो वह भी संन्यस्त हो गयी थी।
'वे तीनों साथ ही बने रहते। वे साथ ही साथ डोलते, साथ ही साथ बैठते, साथ ही साथ भिक्षा मांगने को जाते, साथ ही साथ बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान, न धर्म, न साधना, न कोई सिद्धि, इससे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं था। बुद्ध के वचन भी सुनने न जाते। और बुद्ध के वचन सुनने न जाते-उन्हें लेना-देना क्या था।
भिक्षु और भिक्षुणियां उनसे परेशान होने लगे। यह अजीब सा ही जमघट हो गया इन तीन का! इन्होंने तो एक परिवार बना लिया वहां। आखिर बात बुद्ध तक पहुंची। बुद्ध ने उन्हें बुलाया और उनसे पूछा...देखा बुद्ध ने, सारी बात साफ हो गयी। बेटा सिर्फ भागने के लिए संन्यास ले लिया, घर में स्वतंत्रता न थी।’ सभी बेटे स्वतंत्रता चाहते हैं। किसी भी भांति स्वतंत्रता चाहिए। तो संन्यास ले लिया था कि इस भांति मुक्त हो जाएगा। 'बाप और मां सिर्फ बेटे के पास ही बनें रहे, यह साथ कभी न छूटे, इस मोह में संन्यस्त हो गये थे। बुद्ध ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो! यह कैसा संन्यास! संन्यास का अर्थ ही होता है, अपने अकेलेपन में रस, दूसरे में रस का त्याग।’
-ओशो
'एस धम्मो सनंतनो' पुस्तक की
प्रवचन माला से संकलित एक अंश
पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 


शिक्षक की भूमिका...
जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कंपेयर करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे
शिक्षक बुनियादी रुप से इस जगत में सबसे बड़ा विद्रोही व्यक्ति होना चाहिए। तब वह पीढ़ियों को आगे ले जायेगा। और शिक्षक सबसे बड़ा दकियानूस है, सबसे बड़ा ट्रेडीशनलिस्ट वही है, वही दोहराये जाता है पुराने कचरे को। क्रांति शिक्षक में होती नहीं है। आपने सुना है कि कोई शिक्षक क्रांतिपूर्ण हो। शिक्षक सबसे ज्यादा दकियानूस, सबसे ज्यादा आर्थोडॉक्स है, इसलिए शिक्षक सबसे खतरनाक है। समाज उससे हित नहीं पाता है, अहित पाता है। शिक्षक होना चाहिए विद्रोही-कौन-सा विद्रोही? मकान में आग लगा दें आप, या कुछ और कर दें या जाकर ट्रेन उलट दें या बसों में आग लगा दें, मैं उनको नहीं कह रहा हूँ, गलती से वैसा न समझ लें। मैं कह रहा हूँ कि हमारी जो वैल्यूज हैं उनके बाबत विद्रोह का रुख, विचार का रुख होना चाहिए कि यह मामला क्या है।
जब आप एक बच्चे को कहते हैं कि तुम गधे हो, तुम नासमझ हो, तुम बुद्धिहीन हो, देखो उस दूसरे को, वह कितना आगे है, तब आप विचार करें कि यह कितने दूर तक ठीक है और कितने दूर तक सच है! क्या दुनिया में दो आदमी एक जैसे हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि जिसको आप गधा कह रहे हैं वह वैसा हो जायेगा जैसा कि आगे खड़ा है। क्या यह आज तक संभव है? हर आदमी जैसा है, अपने जैसा है, दूसरे आदमी से कंपेरीजन का कोई सवाल ही नहीं। किसी दूसरे आदमी से उसकी कोई कंपेरीजन नहीं उसकी कोई तुलना नही।

एक छोटा कंकड़ है, वह छोटा कंकड़ है, एक बड़ा कंकड़ है, वह बड़ा कंकड़ है, एक छोटा पौधा है, वह छोटा पौधा है, एक बड़ा पौधा है, वह बड़ा पौधा है! एक घास का फूल है, वह घास का फूल है, एक गुलाब का फूल है, वह गुलाब का फूल है! प्रकृति का जहां तक संबंध है, घास के फूल पर प्रकृति नाराज नहीं है और गुलाब के फूल पर प्रसन्न नहीं है। घास के फूल को भी प्राण देती है उतनी खुशी से जितनी गुलाब के फूल को देती है। और मनुष्य को हटा दें तो घास के फूल और गुलाब के फूल में कौन छोटा कौन बड़ा है? कोई छोटा और बड़ा नहीं है! घास का तिनका और बड़ा भरी चीड़ का दरख्त तो यह महान है और घास का तिनका छोटा है? तो परमात्मा कभी का घास के तिनके को समाप्त कर देता और चीड़-चीड़ के दरख्त रह जाते दुनिया में। नहीं लेकिन आदमी की वैल्यूज गलत हैं।
यह आप स्मरण रखें कि इस संबंध में मैं आपसे कुछ गहरी बात कहने का विचार रखता हूं। वह यह कि जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कंपेयर करेंगे तब तक हम गलत रास्ते पर चलते रहेंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने कि इच्छा पैदा करते हैं, जब कि कोई आदमी न तो दूसरे जैसा बना है और न बन सकता है।
राम को मरे कितने दिन हो गये, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गये, दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता और हजारो हजारो क्रिश्चियन कोशिश में तो चौबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जायें। हजारों राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन, महावीर, बुद्ध बनने की कोशिश में हैं, लेकिन बनते क्यों नहीं एकाध? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर क्यों नहीं पैदा होता? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी? मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं, जो रामलीला में बनते हैं राम। न आप यह समझ लें कि उनकी चर्चा कर रह हूं। वैसे तो कई लोग राम बन जाते हैं, कई लोग बुद्ध जैसे कपडे लपेट लेते हैं और बुद्ध बन जाते हैं। कई लोग महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेते हैं या नंगा हो जाते हैं और महावीर बन जाते हैं। मैं उनकी बात नहीं कर रहा। वे सब रामलीला के राम हैं, उनको छोड़ दें। लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है?
यह आपको ज़िन्दगी में भी पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कोई हो सकता है? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है-यहां हर चीज यूनिक है और हर चीज अद्वितीय है। और जब तक हम प्रत्येक कि अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं देंगे तब तक दुनिया में प्रतियोगिता, रहेगी प्रतिस्पर्धा रहेगी, तब तक मारकाट रहेगी, तब तक दुनिया में हिंसा रहेगी, तब तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय से आदमी आगे होना चाहेगा, दूसरे जैसा होना चाहेगा। जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है तो क्या होता है? फल यह होता है-अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाये या बड़े बड़े शिक्षक वहां पहुंच जायें और उनको समझायें कि देखो, चमेली का फूल चंपा जैसा हो जाये, और चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि देखो जूही कितनी सुंदर है, और सब फूलों में पागलपन आ जाए, और चंपा का फूल जूही जैसा, क्योंकि देखो, जूही कितनी सुंदर है, और सब फूलों में पागलपन आ जाए, हालांकि आ नहीं सकता!
क्योंकि आदमी से पागल फूल नहीं है। आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें नहीं है कि वे चक्कर में पड जायें। शिक्षकों के उपदेशकों के, संन्यासियों के, आदर्शवादियों के, साधुओं के चक्कर में कोई फूल नहीं पड़ेगा। लेकिन फिर भी समझ लें और कल्पना कर लें कि कोई आदमी जाये और समझाए उनको तथा वे चक्कर में आ जायें और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे तो क्या होगा उस बगिया में। उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं हो सकते, उस बगिया में फिर पौधे मुरझा जायेंगे। क्यों क्योंकि चंपा लाख उपाय करे तो चमेली तो नहीं हो सकती, वह उसके स्वाभाव में नही है, वह उसके व्यक्तित्व में नहीं है, वह उसकी प्रकृति में नहीं है। चमेली तो चंपा हो ही नहीं सकती। लेकिन क्या होगा? चमेली चंपा होने की कोशिश में चमेली भी नहीं हो पाएगी। वह जो हो सकती थी उससे भी वंचित हो जाएगी।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य हुआ है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य और अभिशाप जो मनुष्य के साथ हुआ है वह यह कि हर आदमी किसी और जैसा होना चाह रहा है और कौन सिखा रहा है यह? यह षड्यंत्र कौन कर रहा है यह हजार हजार साल से शिक्षा कर रही है। वह कह रही है राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। यह अगर पुरानी तस्वीर फीकी पड़ गयी, तो गांधी जैसे बनो, विनोबा जैसे बनो। किसी न किसी जैसा बनो लेकिन अपने जैसा बनने की भूल कभी न करना क्योंकि तुम तो बेकार पैदा हुए हो। असल में तो गांधी मतलब से पैदा हुए। भगवान ने भूल की जो आपको पैदा किया। क्योंकि अगर भगवान समझदार होता तो राम और बुद्ध ऐसे कोई दस पंद्रह आदमी के टाइप पैदा कर देता दुनिया में। या कि बहुत ही समझदार होता, जैसा कि सभी धर्मो के लोग बहुत ही समझदार होते हैं, तो फिर एक ही तरह के टाइप पैदा कर देता। फिर क्या होता?

अगर दुनिया में समझ लें कि तीन अरब राम ही राम हैं तो कितनी देर चलेगी दुनिया? पंद्रह मिनट ने स्युसाइड हो जायेगा। साऱी दुनिया आत्मघात कर लेगी। इतनी बोरडम पैदा होगी राम ही को देखने से। सब मर जाएगा, कभी सोचा है? सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब के फूल हो जायें और सारे पौधे गुलाब के फूल पैदा करने लगें तो क्या होगा? फूल देखने लायक भी नहीं रह जायेंगे। उनकी तरफ आंख करने कि भी जरुरत नहीं रह जाएगी। यह व्यर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति का पाना व्यक्तित्व होता है। यह गौरवशाली बात है कि आप किसी दूसरे जैसे नहीं हैं और कंपेरिज़न, कि कोई ऊंचा है कोई नीचा है, नासमझी कि बात है। कोई ऊंचा और नीचा नहीं है-प्रत्येक है! प्रत्येक व्यक्ति अपनी जगह है और प्रत्येक व्यक्ति दूसरा अपनी जगह पर। नीचे ऊंचे की बात गलत है। सब तरह का वैल्युएशन गलत है। लेकिन हम यह सिखाते रहे हैं।
विद्रोह से मेरा मतलब है, इस तरह की सारी बातों पर विचार, इस तरह की सारी बातों पर विवेक, इस तरह की एक एक बात को देखना की मैं क्या सिखा रहा हूं इन बच्चों को। जहर तो नहीं पिला रहा हूं? बड़े प्रेम से भी जहर पिलाया जा सकता है और बड़े प्रेम से मां-बाप और शिक्षक जहर पिलाते रहे हैं, लेकिन यह टूटना चाहिए।
-ओशो
पुस्तकः शिक्षा में क्रांति प्रवचन के अंश से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
 

 

जो हो रहा है उसके जिम्मेदार हम खुद हैं

राकेश/इंटरनेट डेस्क | Last updated on: October 30, 2012 1:05 PM IST
हम मनुष्यों की एक सामान्य सी आदत है कि दुःख की घड़ी में विचलित हो उठते हैं और परिस्थितियों का कसूरवार भगवान को मान लेते हैं। भगवान को कोसते रहते हैं कि 'हे भगवान हमने आपका क्या बिगाड़ा जो हमें यह दिन देखना पड़ रहा है।' गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि जीव बार-बार अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग योनी और शरीर प्राप्त करता है।

यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक जीवात्मा परमात्मा से साक्षात्कार नहीं कर लेता। इसलिए जो कुछ भी संसार में होता है या व्यक्ति के साथ घटित होता है उसका जिम्मेदार जीव खुद होता है। संसार में कुछ भी अपने आप नहीं होता है। हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है वह कर्मों का फल है। इश्वर तो कमल के फूल के समान है जो संसार में होते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होता है। ईश्वर न तो किसी को दुःख देता है और न सुख। 

इस संदर्भ में एक कथा प्रस्तुत हैः गौतमी नामक एक वृद्धा ब्राह्मणी थी। जिसका एक मात्र सहारा उसका पुत्र था। ब्राह्मणी अपने पुत्र से अत्यंत स्नेह करती थी। एक दिन एक सर्प ने ब्राह्मणी के पुत्र को डंस लिया। पुत्र की मृत्यु से ब्रह्मणी व्याकुल होकर विलाप करने लगी। पुत्र को डंसने वाले सांप के ऊपर उसे बहुत क्रोध आ रहा था। सर्प को सजा देने के लिए ब्राह्मणी ने एक सपेरे को बुलाया। सपेरे ने सांप को पकड़ कर ब्राह्मणी के सामने लाकर कहा कि इसी सांप ने तुम्हारे पुत्र को डंसा है, इसे मार दो।

ब्राह्मणी ने संपरे से कहा कि इसे मारने से मेरा पुत्र जीवित नहीं होगा। सांप को तुम्ही ले जाओ और जो उचित समझो सो करो। संपेरा सांप को जंगल में ले आया। सांप को मारने के लिए संपेरे ने जैसे ही पत्थर उठाया, सांप ने कहा मुझे क्यों मारते हो, मैंने तो वही किया जो काल ने कहा था। संपेरे ने काल को ढूंढा और बोला तुमने सर्प को ब्राह्मणी के बच्चे को डंसने के लिए क्यों कहा। काल ने कहा 'ब्राह्मणी के पुत्र का कर्म फल यही था।' मेरा कोई कसूर नहीं है।

सपेरा कर्म के पहुंचा और पूछा तुमने ऐसा बुरा कर्म क्यों किया। कर्म ने कहा 'मुझ से क्यों पूछते हो, यह तो मरने वाले से पूछो' मैं तो जड़ हूं। इसके बाद संपेरा ब्राह्मणी के पुत्र की आत्मा के पास पहुंचा। आत्मा ने कहा सभी ठीक कहते हैं। मैंने ही वह कर्म किया था जिसकी वजह से मुझे सर्प ने डंसा, इसके लिए कोई अन्य दोषी नहीं है।

महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने भीष्म को बाणों से छलनी कर दिया और भीष्म पितामह को बाणों की शैय्या पर सोना पड़ा। इसके पीछे भी भीष्म पितामह के कर्म का फल ही था। बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म ने जब श्री कृष्ण से पूछा, किस अपराध के कारण मुझे इसे तरह बाणों की शैय्या पर सोना पड़ रहा है। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने कहा था कि, आपने कई जन्म पहले एक सर्प को नागफनी के कांटों पर फेंक दिया था। इसी अपराध के कारण आपको बाणों की शैय्या मिली है।

इसलिए कभी भी जाने-अनजाने किसी भी जीव को नहीं सताना चाहिए। हम जैसा कर्म करते हैं उसका फल हमें कभी न कभी जरूर मिलता है।

 

 

 

 

अहंकार त्यागने वाले ही महापुरूष होते हैं

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 22, 2012 4:22 PM IST
बहुत से लोग दिन-रात प्रयास करते हैं कि उन्हें किसी तरह उच्च पद मिल जाए। खूब सारा पैसा हो और आराम की जिन्दगी जियें। जब ये सब प्राप्त हो जाता है तो इसे ईश्वर की कृपा मानने की बजाय अपनी काबिलियत और धन पर इतराने लगते हैं। जबकि संसार में किसी चीज की कमी नहीं है। अगर आप धन का अभिमान करते हैं तो देखिए आपसे धनवान भी कोई अन्य है। विद्या का अभिमान है तो ढूंढ़कर देखिए आपसे भी विद्वान मिल जाएगा। इसलिए किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए। जो लोग अहंकार त्याग देते हैं वही महापुरूष कहलाते हैं।

महाभारत में कथा है कि दुर्योधन के उत्तम भोजन के आग्रह को ठुकरा कर भगवान श्री कृष्ण ने महात्मा विदुर के घर साग खाया। भगवान श्री कृष्ण के पास भला किस चीज की कमी थी। अगर उनमें अहंकार होता तो विदुर के घर साग खाने की बजाय दुर्योधन के महल में उत्तम भोजन ग्रहण करते लेकिन श्री कृष्ण ने ऐसा नहीं किया।

भगवान श्री राम ने शबरी के जूठे बेर खाये जबकि लक्ष्मण जी ने जूठे बेर फेंक दिये। यहीं पर राम भगवान की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि उनमें भक्त के प्रति अगाध प्रेम है, वह भक्त की भावना को समझते हैं और उसी से तृप्त हो जाते हैं। अहंकार उन्हें नहीं छूता है, वह ऊंच-नीच, जूठा भोजन एवं छप्पन भोग में कोई भेद नहीं करते। शास्त्रों में भगवान का यही स्वभाव और गुण बताया गया है।

महात्मा बुद्घ से संबंधित एक कथा है कि एक बार महात्मा बुद्घ किसी गांव में प्रवचन दे रहे थे। एक कृषक को उपदेश सुनने की बड़ी इच्छा हुई लेकिन उसी दिन उसका बैल खो गया था। इसलिए वह महात्मा बुद्घ के चरण छू कर सभा से वापस बैल ढूंढने चला गया। शाम होने पर कृषक बैल ढूंढ़कर वापस लौटा तो देखा कि बुद्घ अब भी सभा को संबोधित कर रहे हैं।

भूखा प्यासा किसान फिर से बुद्घ के चरण छूकर प्रवचन सुनने बैठ गया। बुद्घ ने किसान की हालत देखी तो उसे भोजन कराया, फिर उपदेश देना शुरू किया। बुद्घ का यह व्यवहार बताता है कि महात्मा बुद्घ अहंकार पर विजय प्राप्त कर चुके थे। बुद्घ के अंदर अहंकार होता तो किसान पर नाराज होते क्योंकि बैल को ढूंढ़ने के लिए किसान ने बुद्घ के प्रवचन को छोड़ दिया था। शास्त्रों में अहंकार को नाश का कारण बताया गया है इसलिए मनुष्य को कभी भी किसी चीज का अहंकार नहीं करना चाहिए। 



कर्म कीजिए भाग्य आपका गुलाम बन जाएगा

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: December 5, 2012 2:54 PM IST
बहुत से लोग इस बात का रोना रोते रहते हैं कि उनका भाग्य ही खराब है। नसीब नहीं साथ दे रहा है इसलिए किसी काम में सफलता नहीं मिलती है। जबकि सच यह है कि भाग्य तो कर्म के अधीन है। हाथ की लकीरों में अपने भाग्य को ढूंढने की बजाय अगर हम हाथों को कर्म करने के लिए प्रेरित करें तो भाग्य रेखा खुद ही मजबूत हो जाएगी और हम वह पा सकेंगे जिसकी हम चाहत रखते हैं।

कर्म के अनुसार बदलती हैं रेखा
हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार कुछ रेखाओं को छोड़ दें तो बाकी सभी रेखाएं कर्म के अनुसार बदलती रहती है। अपनी हथेली को गौर से देखिए कुछ समय बाद रेखाओं में कुछ न कुछ बदलाव जरूर दिखेगा इसलिए कहा गया है कि रेखाओं से किस्मत नहीं कर्म से रेखाएं बदलती हैं।

सकल पदारथ एहि जग माहिगोस्वामी तुलसीदास जी कर्म के मर्म को बखूबी जानते थे तभी उन्होंने कहा है "सकल पदारथ एहि जग माहिं। कर्महीन नर पावत नाहिं।।" तुलसीदास जी ने अपनी दोहा में स्पष्ट किया है कि इस संसार में सभी कुछ है जिसे हम पाना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन जो कर्महीन अर्थात प्रयास नहीं करते इच्छित चीजों को पाने से वंचित रह जाते हैं।

सिंह को भी आलस्य त्यागना होगा
नीतिशास्त्र में कहा गया है कि 'न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥" इसका तात्पर्य यह है कि सिंह अगर शिकार करने न जाए और सोया रहे तो मृग स्वयं ही उसके मुख में नहीं चला जाएगा। यानी सिंह को अपनी भूख मिटानी है तो उसे आलस त्यागकर मृग का शिकार करना ही पड़ेगा।

इसी प्रकार हम सभी को जिस चीज की, जिस मंजिल की तलाश है उसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रयास का फल देर से मिल सकता है लेकिन परिणाम आपके पक्ष में होगा यह मानकर सही दिशा में प्रयास करते रहना चाहिए।

पृथ्वी यानी कर्म की भूमि
शास्त्रों में पृथ्वी को कर्म भूमि कहा गया है। यहां आप जैसे कर्म करते हैं उसी के अनुरूप आपको फल मिलता है। भगवान श्री कृष्ण ने ही गीता में कर्म को ही प्रधान बताया है और कहा है कि हम मनुष्य के हाथों में मात्र कर्म है अतः हमें यही करना चाहिए।

फल क्या होगा वह हमें भगवान पर छोड़ देना चाहिए। भगवान अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करते हैं इसलिए जो जैसा कर्म करता है उसे उसका उसे वैसा ही फल देते हैं। सीधी बात यह है कि 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा।' अर्थात जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता हैं।
 
 
 

छठ पर्व सिखाता है बुजुर्गों की सेवा करना

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 19, 2012 3:04 PM IST
छठ पर्व को अगर हम धार्मिक दृष्टि से हटकर व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो छठ पर्व हमें जीवन का एक बड़ा रहस्य समझाता है। छठ पर्व के नियम पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि छठ पर्व में षष्ठी तिथि एवं सप्तमी तिथि में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। षष्ठी तिथि के दिन शाम के समय डूबते हुए सूर्य की पूजा करके उन्हें फल एवं पकवानों का अर्घ्य दिया जाता है। जबकि सप्तमी तिथि को उदय कालीन सूर्य की पूजा होती है।

दोनों तिथियों में छठ पूजा होने के बावजूद षष्ठी तिथि को प्रमुखता प्राप्त है क्योंकि इस दिन डूबते सूर्य की पूजा होती है। वेद पुराणों में संध्या कालीन छठ पूर्व को संभवतः इसलिए प्रमुखता दी गयी है ताकि संसार को यह ज्ञात हो सके कि जब तक हम डूबते सूर्य अर्थात बुजुर्गों को आदर सम्मान नहीं देंगे तब तक उगता सूर्य अर्थात नई पीढ़ी उन्नत और खुशहाल नहीं होगी। संस्कारों का बीज बुजुर्गों से ही प्राप्त होता है। बुजुर्ग जीवन के अनुभव रूपी ज्ञान के कारण वेद पुराणों के समान आदर के पात्र होते हैं। इनका निरादर करने की बजाय इनकी सेवा करें और उनसे जीवन का अनुभव रूपी ज्ञान प्राप्त करें। यही छठ पूजा के संध्या कालीन सूर्य पूजा का तात्पर्य है।

जैन गुरू आचार्य पुलक सागर जी ने कहा है दुनिया में ऐसा कोई भी नही है जो सदैव युवा रहे। राम, कृष्ण, महावीर सभी को बुढ़ापा आया। एक दिन हर बच्चा जवान होगा और हर जवान बूढ़ा। इसलिए किसी बुजुर्ग का अनादर नहीं करना चाहिए। हम सभी को यह समझना चाहिए कि बुढापा जीवन का एक सुनहरा अध्याय है। बूढा आदमी दुनिया का सबसे बडा विश्वविद्यालय है। बूढे की एक एक झुर्रियों में जीवन के हजार-हजार अनुभव लिखे होते हैं।
 
 
 

तीर्थों में भटकने से ईश्वर नहीं मिलता

राकेश/इंटरनेट डेस्क। | Last updated on: November 2, 2012 1:37 PM IST
बहुत से लोग एक एक पैसा जोड़कर तीर्थयात्रा की योजना बनाते रहते हैं। इस कारण से वे अपने व्यक्तिगत जीवन की बहुत सी खुशियों की आहुति भी दे देते हैं। लेकिन सोच कर देखिए क्या ईश्वर तीर्थयात्रा करने से प्राप्त हो जाता है। जब आप अपनी छोटी-छोटी खुशियों को मार कर तीर्थयात्रा के लिए धन जमा करते हैं तो ईश्वर को खुशी होती है। आपका अंतर्मन जवाब देगा नहीं‍।

कबीर दास जी ने कहा है 'कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूंढे बन माही, ऐसे, घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि'। तीर्थों में ईश्वर को ढूंढने वाले लोगों के लिए ही संत कबीर ने ऐसा कहा है। कबीरदास जी समझाते हैं कि कस्तूरी मृग जिस तरह अपने अंदर छुपी कस्तूरी को जान नहीं पाता है और कस्तूरी की सुंगध की ओर आकर्षित होकर वन में भटकता रहता है। हम मनुष्य भी ऐसे ही अज्ञानी हैं। ईश्वर हमारे अंदर बसा होता है और उसे मन में तलाशने की बजाय दूर पहाड़ों और जंगलों में ढूंढते फिरते हैं।

अपने एक अन्य दोहे में कबीरदास जी ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आपस में किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए। सभी मनुष्य ईश्वर के ही प्रतिबिंब हैं। 'नर नारायण रूप है, तू मति जाने देह। जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह। अर्थात हम जिसे मात्र शरीर मानते है वह तो नारायण का रूप हैं। क्योंकि हर व्यक्ति में आत्म रूप में नारायण बसते हैं। अगर इस रहस्य को समझ सको तो समझ लो अन्यथा जब शरीर नष्ट होगा तो कुछ नहीं बचेगा। तुम मिट्टी में मिल चुके होगे और शेष रहेगा तो सिर्फ आत्मा जो नारायण रूप है।

भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता के दसवें अध्याय में कहा है कि 'अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितिः' हे गुडाकेश अर्जुन, मैं सभी जीवों में आत्मा रूप में विराजमान रहता हूं। गीता के पांचवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कर्मयोग को समझाते हुए कहा है कि 'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषा नाशितमात्मनः। तेषामादित्यावज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। इस श्लोक का तात्पर्य है जो व्यक्ति ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को अपने अंदर जान लेता है उसके सामने परमात्म तत्व सूर्य की रोशनी से जैसे सब कुछ प्रकाशमान हो जाता है उसी प्रकार परमात्मा उसके समाने दृश्यगत होता है अर्थात साक्षात प्रकट रहता है।