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गंगा बहती है सागर की तरफ। मूल स्रोत पीछे छूट गया है — गंगोत्री पीछे छूट गई है। आगे तो दूरी ही दूरी होगी। गंगोत्री तक पहुंचने का यह मार्ग नहीं है। गंगा को उलटा लौटना पड़े।
तुम्हारी चेतना की गंगा भी जब उलटी लौटेगी — गंगोत्री की तरफ लौटेगी, मूल स्रोत की तरफ, तभी तुम पहुँच पाओगे। क्योंकि, जिसे खोया है, उसे मूल स्रोत में ही खोया है। जिसे खोया है, वह आगे नहीं है; उसे तुम कहीं पीछे छोड़ आये हो।
इस बात को बहुत ठीक से विचार कर लेना। कबीर का यह सूत्र इसी तरफ इशारा है।
और कबीर कहते हैं, यह सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है जिसे साधु को सोच लेना है। जिसे तुम खोज रहे हो उसे पीछे छोड़ आये हो। कभी वह तुम्हारी संपदा थी, विस्मृत हो गई। कभी तुम उसके मालिक थे और अब तुम भटक गये हो। अस्तित्व का समस्त आनंद कभी तुम्हारा था। निर्दोषता तुम्हारी थी। तुम साधु पैदा ही हुए थे। सभी साधु की तरह पैदा होते है। साधुता स्वभाव है। आसुधता अर्जित की जाती है। असाधुता तुम्हारी कमाई है, जो तुमने सीखी है। अपनी होशियारी से तुम असाधु हुए हो, निर्दोषता में तुम साधु थे ही।
सभी बच्चे साधु की तरह पैदा होते हैं — परम साधु की भांति। और संसार का जहर, शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, भीड़, धीरे-धीरे उन्हें स्वभाव से हटा देती है। वे अपने केन्द्र से वंचित हैं। फिर जीवन भर उसी केंद्र की तलाश चलती है। लेकिन तलाश चलती है समाज के नियमों के अनुसार। और यही उपद्रव है।
समाज के नियमों ने ही तुम्हें केन्द्र से च्युत किया। उन्हीं नियमों को मान कर तुम खोज करते हो आनंद की। तुम और दूर होते चले जाते हो। तुम और भटक जाते हो। जिसने तुम्हें हटाया है स्वयं से, तुम उसकी ही मान कर चलते हो। समाज तुम्हारा गुरु हो गया है। और तुमने अपने अन्तःकरण की आवाज को सुनना बिलकुल बंद कर दिया है। और समाज ने एक झूठा अन्तःकरण तुम्हारे भीतर पैदा कर दिया है।
जब तुम चोरी करने जाते हो, तब तुम्हारे भीतर कोई कहता है, चोरी मत करो। जब तुम बुरा काम करने जाते हो, तुम्हारे भीतर कोई कहता है, बुरा मत करो। लेकिन यह तुम्हारे समाज के द्वारा दिया गया अन्तःकरण है। यह तुम्हारी अपनी आत्मा की आवाज नहीं है। यह समाज ही बोल रहा है।
समाज ने तुम्हें सिखा दिया है कि क्या बुरा है, क्या अच्छा है। और इसलिए अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग अंतःकरण होगा। अगर तुम्हारा अंतःकरण ही बोलता हो — वही जो परमात्मा ने तुम्हें दिया हो, अछूता समाज से — तो उसकी आवाज तो सारी दुनिया में सभी युगों में एक ही होगी। वह तो शाश्वत होगा। अभी तो अगर तुम हत्या करने जाओ तो तुम्हारा अतःकरण — जो कि वस्तुतः तुम्हारा नहीं है, समाज का धोखा है; तुम्हारे वास्तविक अंतःकरण के ऊपर एक और अंतःकरण थोप दिया गया है समाज की शिक्षा का — वह कहता है, हत्या मत करो। फिर कल तुम मजिस्ट्रेट हो और वही अंतःकरण अब नहीं कहता कि हत्या की सजा मत दो। अब तुम मजे से सैकड़ों को लटका देते हो सूली पर।
या कल तुम युद्ध के मैदान पर चले जाते हो। समाज का अतःकरण कल तक कहता था कि हत्या पाप है। चीटीं भी मारते तो भीतर अपराध अनुभव होता था। युद्ध के मैदान में तुम दिल खोल के लोगों को काटते हो। और वही समाज का अंतःकरण तुमसे कहता है, तुम महान कार्य कर रह हो। तुम्हारी चिता पर मेले लगेंगे। तुम बड़े वीर हो। देश तुम्हारा सदा-सदा इतिहास स्मरण रखेगा, गुणगान करेगा।
अगर तुम्हारा ही अंतःकरण बोलता हो तो चाहे तुम हत्या करने जाओ, चाहे मजिस्ट्रेट की तरह किसी को फांसी की सजा दो, चाहे युद्ध के मैदान पर किसी की छाती पर बंदूक तानो — उस अंतःकरण की आवाज एक ही होगी, कि नहीं, गलत कर रहे हो; मिटाना गलत है; नष्ट करना गलत है। क्योंकि परमात्मा स्रष्टा है। और तुम विध्वंस कर रहे हो? — तो तुम परमात्मा से दूर जा रहे हो।
तुम्हारा वास्तविक अंतःकरण हर परिस्थिति में बेशर्त कहेगा, हिंसा बुरी है। लेकिन समाज के द्वारा जो अंतःकरण दिया है वह कभी तो कहेगा, हिंसा बुरी है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा, हिंसा ठीक है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा बेपरवाह हिंसा करो — यही पुण्य है, यही धर्म है — जब समाज की सुविधा होगी। ऐसा लगता है, हत्या का सवाल नहीं है; समाज की सुविधा-असुविधा का सवाल है।
अगर तुम इस अंतःकरण से भरे रहे तो तुम अपने अंतःकरण को कभी भी न खोज पाओगे। और तुम इसी के सहारे उसे खोजने की कोशिश कर रहे हो। नीति के मार्ग से तुम धर्म तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हो और नीति ही वह व्यवस्था है जिसने तुम्हें धर्म से वंचित किया है।
कबीर के इन वचनों को समझना बड़ा क्रांतिकारी होगा। तुम भरोसा ही न करोगे कि ऐसी बात संत कह सकेंगे। लेकिन संत ही ऐसी बात कह सकते हैं। क्योंकि वे ही परम विद्रोही हैं, और वे तो वही कहते हैं जो ठीक है। क्या होगा परिणाम, समाज भला-बुरा कैसा सोचेगा, इसकी उन्हें चिंता नहीं।
एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा।
वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर देखते रहना, गौर से जांच करना।
तो उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया, नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो गया था।
इसने पूछा कि महाराज, और सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल जम जाती है। समय के बीतने से धूल जम जाती है।
यह तो वापस चला आया। गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है। वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता है, रात बारह बजे तक घिसता रहा, फिर सुबह पांच बजे से--और घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ! इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और सुबह उठते ही से फिर घिस। क्योंकि रात भी सपनों के कारण धूल जम जाती है। समय के बीतते ही धूल जम जाती है।
विचार और स्वप्न हमारे भीतर के मन की धूल हैं।
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; वे-पढ़े-लिखे हैं, इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की — शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।
कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे — जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गये। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।
और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।
कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी हैं, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।
बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए सम्राट अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास सब है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है-धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो — तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, तो भी यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यह दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।
बुद्ध को समझोगे तो हाथ-पैर ढीले पड़ जाएंगे।
बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस-मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुंदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।
कबीर गरीब हैं, और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण-सी पत्नी है, और जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।
गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी, वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां-महल सूना हो गया!
आदमी महत्त्वाकांक्षा में जीता है। महत्त्वाकांक्षा कल की — और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा... दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति न रही — छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।
बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किये गये थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।
कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां-बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था — बच्चे को-पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आये नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य में लिखा था। यह भिखारी भी जान गया कि धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है; लेकिन बुद्ध-जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं है। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं-शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गये, तो तुम भी पहुंच सकते हो।
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं-‘मसी कागज छुओ न हाथ।’
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब-किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे — कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है — चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है — बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है — और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
चिकित्सक के हाथ में मनुष्य का पूरा जीवन होता है, और मनुष्य का जीवन जटिल घटना है। कभी तुम से गलती हो जाए, तो वह गलती किसी व्यक्ति के जीवन के लिए घातक हो सकती है। इसलिए जब किसी की चिकित्सा का काम अपने हाथ में लो तो पूरी तरह प्रेम से भरे हुए जाओ।
चिकित्सा के क्षेत्र में जो लोग इस तरह जाते हैं, जैसे वे इंजीनियरिंग में जा रहे हों वे लोग डॉक्टर बनने के लिए ठीक नहीं हैं--वे गलत लोग हैं। जो लोग जीवन के प्रति प्रेम से भरे हुए नहीं है, वे चिकित्सा के व्यवसाय में गलत हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं होगी; वे मनुष्यों के साथ मशीनों जैसा व्यवहार करेंगे। वे मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जैसा कोई मोटर मेकेनिक कार के साथ करता है। वे मरीज के प्राणों को तो महसूस ही नहीं कर पाएंगे। वे व्यक्ति का इलाज नहीं करेंगे, केवल उसके लक्षणों का इलाज करेंगे। यह बात अलग है कि वे जो भी करेंगे उसके प्रति वे पूरी तरह विश्वास से भरे होंगे--टेक्नीशियन को अपने काम पर विश्वास होता ही है।
लेकिन जब तुम मनुष्यों के साथ काम कर रहे हो तो तुम इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते। वहां झिझक स्वाभाविक है। व्यक्ति कुछ भी करने से पहले दो तीन-बार सोचता है क्योंकि एक कीमती जीवन का सवाल है — जीवन जिसका सृजन नहीं किया जा सकता, जो एक बार गया तो बस गया। और हर व्यक्ति अनूठा होता है, उसकी जगह कभी भरी नहीं जा सकती, उसके जैसा कोई और न तो कभी हुआ और न होगा। चिकित्सक आग से खेल रहा होता है। झिझक स्वाभाविक है!
मरीज के प्रति श्रद्धा का भाव रखो। और उसका इलाज करते हुए दिव्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। डॉक्टर ही मत बने रहो, आरोग्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। बस वहां मरीज हो परमात्मा हो — तुम प्रार्थना की एक दशा में आ जाओ और परमात्मा को अपने मरीज की ओर बहने दो। मरीज तो बीमार है, वह उस ऊर्जा से संबंधित नहीं हो पा रहा। वह उस ऊर्जा से दूर पड़ गया है। वह स्वयं अपना उपचार करने की भाषा भूल गया है। वह असहाय अवस्था में है, उस पर तुम कुछ आरोपित नहीं कर सकते।
जो व्यक्ति स्वयं स्वस्थ हो, वह यदि माध्यम बन जाए तो बहुत सहयोगी हो सकता है। और यदि वह स्वस्थ व्यक्ति शरीर की संरचना के विषय में भी जानता हो तो उसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि दिव्य ऊर्जा उसे सूक्ष्म इशारे दे सकती है। तुम्हें उन इशारों को डीकोड भर करना है। यदि तुम चिकित्साशास्त्र के विषय में जानते हो तो बहुत आसानी से उन संकेतों के अर्थ खोल सकते हो। और तब तुम मरीज के साथ कुछ नहीं करते, परमात्मा ही करता है। तुम स्वयं को परमात्मा के हाथों में उपलब्ध कर देते हो, और चिकित्सा की अपनी पूरी जानकारी को काम करने देते हो। परमात्मा की आरोग्य ऊर्जा और तुम्हारी जानकारी के मिलन से जो घटित होता है वह उपयोगी होता है। और उससे कभी नुकसान नहीं हो सकता। तो स्वयं को विदा करो: परमात्मा को होने दो। चिकित्सा के क्षेत्र में उतरो तो ध्यान भी शुरू करो।
और तुम्हें शायद पता न हो कि अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से। पुराने समय में वैद्य और संत अलग-अलग व्यक्ति नहीं हुआ करते थे? वह एक ही व्यक्ति होता था।
-ओशो
गाड इज नॉट फॉर सेल से अनुवादित
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कबीर के इन वचनों को समझना बड़ा क्रांतिकारी
होगा। तुम भरोसा ही न करोगे कि ऐसी बात संत कह सकेंगे। लेकिन संत ही ऐसी
बात कह सकते हैं। क्योंकि वे ही परम विद्रोही हैं, और वे तो वही कहते हैं
जो ठीक है
तुम जैसे भी हो, ठीक उससे उलटा होना ही मार्ग है। जिस दिशा में तुम चल रहे हो, उससे उलटा चल सकोगे तो पहुँचोगे।गंगा बहती है सागर की तरफ। मूल स्रोत पीछे छूट गया है — गंगोत्री पीछे छूट गई है। आगे तो दूरी ही दूरी होगी। गंगोत्री तक पहुंचने का यह मार्ग नहीं है। गंगा को उलटा लौटना पड़े।
तुम्हारी चेतना की गंगा भी जब उलटी लौटेगी — गंगोत्री की तरफ लौटेगी, मूल स्रोत की तरफ, तभी तुम पहुँच पाओगे। क्योंकि, जिसे खोया है, उसे मूल स्रोत में ही खोया है। जिसे खोया है, वह आगे नहीं है; उसे तुम कहीं पीछे छोड़ आये हो।
इस बात को बहुत ठीक से विचार कर लेना। कबीर का यह सूत्र इसी तरफ इशारा है।
और कबीर कहते हैं, यह सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है जिसे साधु को सोच लेना है। जिसे तुम खोज रहे हो उसे पीछे छोड़ आये हो। कभी वह तुम्हारी संपदा थी, विस्मृत हो गई। कभी तुम उसके मालिक थे और अब तुम भटक गये हो। अस्तित्व का समस्त आनंद कभी तुम्हारा था। निर्दोषता तुम्हारी थी। तुम साधु पैदा ही हुए थे। सभी साधु की तरह पैदा होते है। साधुता स्वभाव है। आसुधता अर्जित की जाती है। असाधुता तुम्हारी कमाई है, जो तुमने सीखी है। अपनी होशियारी से तुम असाधु हुए हो, निर्दोषता में तुम साधु थे ही।
सभी बच्चे साधु की तरह पैदा होते हैं — परम साधु की भांति। और संसार का जहर, शिक्षा-दीक्षा, संस्कार, भीड़, धीरे-धीरे उन्हें स्वभाव से हटा देती है। वे अपने केन्द्र से वंचित हैं। फिर जीवन भर उसी केंद्र की तलाश चलती है। लेकिन तलाश चलती है समाज के नियमों के अनुसार। और यही उपद्रव है।
समाज के नियमों ने ही तुम्हें केन्द्र से च्युत किया। उन्हीं नियमों को मान कर तुम खोज करते हो आनंद की। तुम और दूर होते चले जाते हो। तुम और भटक जाते हो। जिसने तुम्हें हटाया है स्वयं से, तुम उसकी ही मान कर चलते हो। समाज तुम्हारा गुरु हो गया है। और तुमने अपने अन्तःकरण की आवाज को सुनना बिलकुल बंद कर दिया है। और समाज ने एक झूठा अन्तःकरण तुम्हारे भीतर पैदा कर दिया है।
जब तुम चोरी करने जाते हो, तब तुम्हारे भीतर कोई कहता है, चोरी मत करो। जब तुम बुरा काम करने जाते हो, तुम्हारे भीतर कोई कहता है, बुरा मत करो। लेकिन यह तुम्हारे समाज के द्वारा दिया गया अन्तःकरण है। यह तुम्हारी अपनी आत्मा की आवाज नहीं है। यह समाज ही बोल रहा है।
समाज ने तुम्हें सिखा दिया है कि क्या बुरा है, क्या अच्छा है। और इसलिए अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग जातियों में, अलग-अलग अंतःकरण होगा। अगर तुम्हारा अंतःकरण ही बोलता हो — वही जो परमात्मा ने तुम्हें दिया हो, अछूता समाज से — तो उसकी आवाज तो सारी दुनिया में सभी युगों में एक ही होगी। वह तो शाश्वत होगा। अभी तो अगर तुम हत्या करने जाओ तो तुम्हारा अतःकरण — जो कि वस्तुतः तुम्हारा नहीं है, समाज का धोखा है; तुम्हारे वास्तविक अंतःकरण के ऊपर एक और अंतःकरण थोप दिया गया है समाज की शिक्षा का — वह कहता है, हत्या मत करो। फिर कल तुम मजिस्ट्रेट हो और वही अंतःकरण अब नहीं कहता कि हत्या की सजा मत दो। अब तुम मजे से सैकड़ों को लटका देते हो सूली पर।
या कल तुम युद्ध के मैदान पर चले जाते हो। समाज का अतःकरण कल तक कहता था कि हत्या पाप है। चीटीं भी मारते तो भीतर अपराध अनुभव होता था। युद्ध के मैदान में तुम दिल खोल के लोगों को काटते हो। और वही समाज का अंतःकरण तुमसे कहता है, तुम महान कार्य कर रह हो। तुम्हारी चिता पर मेले लगेंगे। तुम बड़े वीर हो। देश तुम्हारा सदा-सदा इतिहास स्मरण रखेगा, गुणगान करेगा।
अगर तुम्हारा ही अंतःकरण बोलता हो तो चाहे तुम हत्या करने जाओ, चाहे मजिस्ट्रेट की तरह किसी को फांसी की सजा दो, चाहे युद्ध के मैदान पर किसी की छाती पर बंदूक तानो — उस अंतःकरण की आवाज एक ही होगी, कि नहीं, गलत कर रहे हो; मिटाना गलत है; नष्ट करना गलत है। क्योंकि परमात्मा स्रष्टा है। और तुम विध्वंस कर रहे हो? — तो तुम परमात्मा से दूर जा रहे हो।
तुम्हारा वास्तविक अंतःकरण हर परिस्थिति में बेशर्त कहेगा, हिंसा बुरी है। लेकिन समाज के द्वारा जो अंतःकरण दिया है वह कभी तो कहेगा, हिंसा बुरी है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा, हिंसा ठीक है, जब समाज के हित में होगा; कभी कहेगा बेपरवाह हिंसा करो — यही पुण्य है, यही धर्म है — जब समाज की सुविधा होगी। ऐसा लगता है, हत्या का सवाल नहीं है; समाज की सुविधा-असुविधा का सवाल है।
अगर तुम इस अंतःकरण से भरे रहे तो तुम अपने अंतःकरण को कभी भी न खोज पाओगे। और तुम इसी के सहारे उसे खोजने की कोशिश कर रहे हो। नीति के मार्ग से तुम धर्म तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हो और नीति ही वह व्यवस्था है जिसने तुम्हें धर्म से वंचित किया है।
कबीर के इन वचनों को समझना बड़ा क्रांतिकारी होगा। तुम भरोसा ही न करोगे कि ऐसी बात संत कह सकेंगे। लेकिन संत ही ऐसी बात कह सकते हैं। क्योंकि वे ही परम विद्रोही हैं, और वे तो वही कहते हैं जो ठीक है। क्या होगा परिणाम, समाज भला-बुरा कैसा सोचेगा, इसकी उन्हें चिंता नहीं।
-ओशो
कहै कबीर मैं पूरा पाया
प्रवचन नं. 7 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)
कहै कबीर मैं पूरा पाया
प्रवचन नं. 7 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम.पी.थ्री. पर भी उपलब्ध है)
विचार, स्वप्न-मन की धूल हैं
एक झेन कथा है।एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा।
वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर देखते रहना, गौर से जांच करना।
तो उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया, नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो गया था।
इसने पूछा कि महाराज, और सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल जम जाती है। समय के बीतने से धूल जम जाती है।
यह तो वापस चला आया। गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है। वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता है, रात बारह बजे तक घिसता रहा, फिर सुबह पांच बजे से--और घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ! इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और सुबह उठते ही से फिर घिस। क्योंकि रात भी सपनों के कारण धूल जम जाती है। समय के बीतते ही धूल जम जाती है।
विचार और स्वप्न हमारे भीतर के मन की धूल हैं।
-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग-8
प्रवचन नं. 79 से संकलित
एस धम्मो सनंतनो, भाग-8
प्रवचन नं. 79 से संकलित
कबीर
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा
सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा
कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब
महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता
नहीं है
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; वे-पढ़े-लिखे हैं, इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की — शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।
कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे — जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गये। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।
और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।
कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी हैं, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।
बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए सम्राट अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास सब है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है-धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो — तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, तो भी यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यह दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।
बुद्ध को समझोगे तो हाथ-पैर ढीले पड़ जाएंगे।
बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस-मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुंदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।
कबीर गरीब हैं, और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण-सी पत्नी है, और जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।
गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी, वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां-महल सूना हो गया!
आदमी महत्त्वाकांक्षा में जीता है। महत्त्वाकांक्षा कल की — और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा... दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति न रही — छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।
बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किये गये थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।
कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां-बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था — बच्चे को-पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आये नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य में लिखा था। यह भिखारी भी जान गया कि धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है; लेकिन बुद्ध-जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं है। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं-शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गये, तो तुम भी पहुंच सकते हो।
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं-‘मसी कागज छुओ न हाथ।’
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब-किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे — कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है — चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है — बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है — और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
-ओशो
सुनो भई साधो
प्रवचन नं. 1 से संकलि
सुनो भई साधो
प्रवचन नं. 1 से संकलि
मेडिसिन और मेडिटेशन
अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और
मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों
से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से
चिकित्सा
कोई सामान्य व्यवसाय की तरह नहीं है। उसे सिर्फ किसी टेक्नोलाज़ी की तरह
मत समझो, क्योंकि उसमें तुम्हें आदमियों पर काम करना पड़ता है। जब तुम किसी
व्यक्ति की चिकित्सा करते हो तो ऐसा नहीं कि तुम मशीन को ठीक कर रहे हो।
केवल जानकारी सवाल नहीं है, यह प्रेम का गहरे से गहरा सवाल है।चिकित्सक के हाथ में मनुष्य का पूरा जीवन होता है, और मनुष्य का जीवन जटिल घटना है। कभी तुम से गलती हो जाए, तो वह गलती किसी व्यक्ति के जीवन के लिए घातक हो सकती है। इसलिए जब किसी की चिकित्सा का काम अपने हाथ में लो तो पूरी तरह प्रेम से भरे हुए जाओ।
चिकित्सा के क्षेत्र में जो लोग इस तरह जाते हैं, जैसे वे इंजीनियरिंग में जा रहे हों वे लोग डॉक्टर बनने के लिए ठीक नहीं हैं--वे गलत लोग हैं। जो लोग जीवन के प्रति प्रेम से भरे हुए नहीं है, वे चिकित्सा के व्यवसाय में गलत हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं होगी; वे मनुष्यों के साथ मशीनों जैसा व्यवहार करेंगे। वे मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जैसा कोई मोटर मेकेनिक कार के साथ करता है। वे मरीज के प्राणों को तो महसूस ही नहीं कर पाएंगे। वे व्यक्ति का इलाज नहीं करेंगे, केवल उसके लक्षणों का इलाज करेंगे। यह बात अलग है कि वे जो भी करेंगे उसके प्रति वे पूरी तरह विश्वास से भरे होंगे--टेक्नीशियन को अपने काम पर विश्वास होता ही है।
लेकिन जब तुम मनुष्यों के साथ काम कर रहे हो तो तुम इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते। वहां झिझक स्वाभाविक है। व्यक्ति कुछ भी करने से पहले दो तीन-बार सोचता है क्योंकि एक कीमती जीवन का सवाल है — जीवन जिसका सृजन नहीं किया जा सकता, जो एक बार गया तो बस गया। और हर व्यक्ति अनूठा होता है, उसकी जगह कभी भरी नहीं जा सकती, उसके जैसा कोई और न तो कभी हुआ और न होगा। चिकित्सक आग से खेल रहा होता है। झिझक स्वाभाविक है!
मरीज के प्रति श्रद्धा का भाव रखो। और उसका इलाज करते हुए दिव्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। डॉक्टर ही मत बने रहो, आरोग्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। बस वहां मरीज हो परमात्मा हो — तुम प्रार्थना की एक दशा में आ जाओ और परमात्मा को अपने मरीज की ओर बहने दो। मरीज तो बीमार है, वह उस ऊर्जा से संबंधित नहीं हो पा रहा। वह उस ऊर्जा से दूर पड़ गया है। वह स्वयं अपना उपचार करने की भाषा भूल गया है। वह असहाय अवस्था में है, उस पर तुम कुछ आरोपित नहीं कर सकते।
जो व्यक्ति स्वयं स्वस्थ हो, वह यदि माध्यम बन जाए तो बहुत सहयोगी हो सकता है। और यदि वह स्वस्थ व्यक्ति शरीर की संरचना के विषय में भी जानता हो तो उसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि दिव्य ऊर्जा उसे सूक्ष्म इशारे दे सकती है। तुम्हें उन इशारों को डीकोड भर करना है। यदि तुम चिकित्साशास्त्र के विषय में जानते हो तो बहुत आसानी से उन संकेतों के अर्थ खोल सकते हो। और तब तुम मरीज के साथ कुछ नहीं करते, परमात्मा ही करता है। तुम स्वयं को परमात्मा के हाथों में उपलब्ध कर देते हो, और चिकित्सा की अपनी पूरी जानकारी को काम करने देते हो। परमात्मा की आरोग्य ऊर्जा और तुम्हारी जानकारी के मिलन से जो घटित होता है वह उपयोगी होता है। और उससे कभी नुकसान नहीं हो सकता। तो स्वयं को विदा करो: परमात्मा को होने दो। चिकित्सा के क्षेत्र में उतरो तो ध्यान भी शुरू करो।
और तुम्हें शायद पता न हो कि अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से। पुराने समय में वैद्य और संत अलग-अलग व्यक्ति नहीं हुआ करते थे? वह एक ही व्यक्ति होता था।
-ओशो
गाड इज नॉट फॉर सेल से अनुवादित