मैं जिन्हें संन्यासी कह रहा हूं वे जगत से भागे हुए लोग नहीं हैं। वे जहां हैं वहीं रहेंगे
संसार
और संन्यास मनःस्थितियां हैं, मेंटल एटीटयूडस हैं। इसलिए परिस्थितियों से
भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। परिस्थितियों को बदलने की कोई भी जरूरत
नहीं है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जब मनःस्थिति बदलती है तो परिस्थिति
वहीं नहीं रह जाती। क्योंकि परिस्थिति वैसी ही दिखाई पड़ने लगती है जैसी
मनःस्थिति होती है। जो आदमी संसार छोड़कर, भागकर संन्यासी हो रहा है, वह भी
अभी संसारी है। क्योंकि उसका अभी विश्वास परिस्थिति पर है। वह भी सोचता है,
परिस्थित बदल लूंगा तो सब बदल जाएगा। वह अभी संसारी है। संन्यासी वह है,
जो कहता है कि मनःस्थिति बदलेगी तो सब बदल जाएगा। मनःस्थिति बदलेगी, सब बदल
जाएगा, ऐसा जिसका भरोसा है, ऐसी जिसकी समझ है, वह आदमी संन्यासी है। और जो
सोचता है कि परिस्थिति बदल जाएगी तो सब बदल जाएगा, ऐसी मनःस्थिति संसारी
की है। वह आदमी संसारी है।
मेरा जोर परिस्थिति पर बिलकुल नहीं है,
मनःस्थिति पर है। एक ऐसा संन्यासी बच सकता है। और मैं कहना चाहता हूं कि
संन्यास बचाने जैसी चीज है।
पश्चिम ने विज्ञान दिया है, वह पश्चिम का
कंट्रीब्यूशन है मनुष्य के लिए। पूरब ने संन्यास दिया है, वह पूरब का
कंट्रीब्यूशन है संसार के लिए। जगत को पूरब ने जो श्रेष्ठतम दिया है, वह
संन्यास है। जो श्रेष्ठतम व्यक्ति दिये हैं, वह बुद्ध हैं, वह महावीर हैं,
वह कृष्ण हैं, वह क्राइस्ट हैं, वह मोहम्मद हैं। ये सब पूरब के लोग हैं।
क्राइस्ट भी पश्चिम के आदमी नहीं हैं। ये सब एशिया से आए हुए लोग हैं।
शायद आपको पता न हो यह एशिया शब्द है कहां से आ
गया है। बहुत पुराना शब्द है। कोई आज से छह हजार साल पुराना शब्द है, और
बेबीलोन में पहली दफा इस शब्द का जन्म हुआ। बेबीलोनियन भाषा में एक शब्द है
असू। असू से एशिया बना। असू का मतलब होता है, सूर्य का उगता हुआ देश। जो
जापान का अर्थ है वही एशिया का भी अर्थ है। जहां से सूरज उगता है, जिस जगह
से सूर्य उगा है, वहीं से जगत को सारे संन्यासी मिले। यूरोप शब्द का ठीक
इससे उल्टा मतलब है। यूरोप शब्द भी अशीरियन भाषा का शब्द है। वह जिस शब्द
से बना है-अरेश-उस शब्द का मतलब है, सूरज के डूबने का देश; संध्या का,
अंधेरे का, जहां सूर्यास्त होता है।
वे जो सूर्यास्त के देश हैं, उनमें विज्ञान
मिला है, वैज्ञानिक मिला है। जो सूर्योदय के देश हैं, सुबह के, उनसे
संन्यास मिला है। इस जगत को अब तक दो बड़ी से बड़ी देन मिली है, दोनो छोरों
से, उनमें एक विज्ञान की है। स्वभावतः विज्ञान वही मिल सकता है जहां भौतिक
की खोज हो। स्वभावतः संन्यास वहीं मिल सकता है जहां अभौतिक की खोज हो।
विज्ञान वही मिल सकता है जहां पदार्थ की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो।
और संन्यास वही मिल सकता है जहां परमात्मा की गहराइयों में उतरने की चेष्टा
हो। जो अंधेरे से लड़ेंगे वे विज्ञान को जन्म दे देंगे। और जो सुबह के
प्रकाश को प्रेम करेंगे वे परमात्मा की खोज पर निकल जाते हैं।
यह जो पूरब से संन्यास मिला है, यह संन्यास
भविष्य में खो सकता है। क्योंकि संन्यास की अब तक जो व्यवस्था थी उस
व्यवस्था के मूल आधार टूट गये हैं। इसलिए मैं देखता हूं इस संन्यास को
बचाया जाना जरूरी है। यह बचाया जाएगा, पर आश्रमों में नहीं, वनों में नहीं,
हिमालय पर नहीं।
वह तिब्बत का संन्यासी नष्ट हो गया। शायद
गहरे से गहरा संन्यासी तिब्बत के पास था। लेकिन वह विदा हो रहा है, वह विदा
हो जाएगा, वह बच नहीं सकता है। अब संन्यासी बचेगा फैक्ट्री में, दुकान
में, बाजार में, स्कूल में, यूनिवर्सिटी में। जिंदगी जहां है, अब संन्यासी
को वहीं खड़ा हो जाना पड़ेगा। और संन्यासी जगह बदल ले, इसमें बहुत अड़चन नहीं
है। संन्यास नहीं मिटना चाहिए।
इसलिए मैं जिंदगी को भीतर से संन्यासी कर
देने के पक्ष में हूं। जो जहां है वहीं संन्यासी हो जाए सिर्फ रूख बदले,
मनःस्थिति बदले। हिंसा की जगह अहिंसा उसकी मनःस्थिति बने, परिग्रह की जगह
अपरिग्रह उसकी समझ बने, चोरी की जगह अचैर्य उसका आनंद हो, काम की जगह अकाम
पर उसकी दृष्टि बढ़ती चली जाए, प्रमाद की जगह अप्रमाद उसकी साधना बने, तो
व्यक्ति जहां है, जिस जगह है, वही मनः स्थिति बदल जाएगी। और फिर सब बदल
जाता है।
इसलिए मैं जिन्हें संन्यासी कह रहा हूं वे जगत
से भागे हुए लोग नहीं हैं। वे जहां हैं वहीं रहेंगे। और यह बड़े मजे की बात
है, आज तो जगत से भागना ज्यादा आसान है। आज जगत में खड़े होकर संन्यास लेना
बहुत कठिन है। भाग जाने में तो अड़चन नहीं है, लेकिन एक आदमी जूते की दुकान
करता है और वहीं संन्यासी हो गया है तो बड़ी अड़चने हैं। क्योंकि दुकान वही
रहेगी, ग्राहक वही रहेंगे, जूता वही रहेगा, बेचना वही है, बेचने वाला,
लेने वाला सब वही है। लेकिन एक आदमी अपनी पूरी मनःस्थिति बदलकर वहां जी रहा
है। सब पुराना है। सिर्फ एक मन को बदलने की आकांक्षा से भरा है। इस सब
पुराने के बीच इस मन को बदलने में बडी दुरूहता होगी। यह तपश्चर्या है। इस
तपश्चर्या है। इस तपश्चर्या से गुजरना अद्भुत अनुभव है। और ध्यान रहे,
जितना सस्ता संन्यास मिल जाए उतना गहरा नहीं हो पाता, जितना महंगा मिले
उतना ही गहरा हो जाता है। संसार में संन्यासी होकर खड़ा होना बड़ी तपश्चर्या
की बात है।
-ओशो
पुस्तकः मैं कहता आंखन देखी
प्रवचन माला 36 से संकलित
पूरा प्रवचन एम.पी. थ्री. एवं पुस्तक में उपलब्ध है
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बाल जगत |
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कागज का इतिहास
"बचपन के सारे क्षण ह्रदय के विकास
में दिए जाने चाहिए, सारा श्रम हृदय के विकास के लिए होना चाहिए और हृदय के
विकास के लिए कुछ और अवसर खोजने पड़ते हैं, वे अवसर नहीं है जो हम स्कूल
में और विद्यालय में खोजते हैं। हृदय के विकास के लिए जरुरी है कि बच्चा
खुले आकाश के नीचे हो बजाय बंद मकानों के क्योंकि बंद मकान हृदय को भी बंद
और कुंठित करते हैं। खुले आकाश के नीचे हो, दरख्तों के पास हो, चांद-तारों
की छाया में हो, नदियों और समुद्रों के किनारे हों खुली मिट्टी और पृथ्वी
के संसर्ग में हो। जितने विराट के निकट होगा बच्चा, उतने ही प्रेम का उसके
भीतर जन्म होगा और सौंदर्य का बोध और विकसित होगा।"
ओशो
शिक्षा ओशो की दृष्टि में
जब लेखन विधि का आविष्कार हुआ तो सबसे पहले लोग लिखने के लिए
भोजपत्र, चर्मपत्र या पेड़ों के पत्तों का प्रयोग किया करते थे। करीब 3000
साल बाद कागज का वास्तविक विकास हो सका। कागज का सर्वप्रथम आविष्कार चीन
में 100 ईसा पूर्व हुआ था। 105 ईसा में चीन के हान राजवंश के सम्राट
हो-ती-की के शासन काल में चीन सरकार तसाई लून के अधिकारियों ने कागज बनाना
शुरू किया था। तसाई लून के अधिकारी कागज को कुछ खास चीजों के मिश्रण से
बनाते थे, जिसमें शहतूत की बारीक छाल और भांग लत्ता पानी में मिलाकर, और
पानी से निकालकर, इसे धूप में अच्छी तरह से सुखाया जाता था। यह विचार शायद
गहरे कपड़ों के प्रयोग से आया था, जोकि शहतूत की छाल से बने होते थे। जो चीन
में आसानी से उपलब्ध थे। तसाई लून का यह कागज काफी प्रसिद्ध हुआ और पन्नों
की दृष्टि से यह बहुत बड़ी सफलता थी। धीरे-धीरे इसका प्रयोग पूरे चीन में
शुरू हो गया।
प्राचीन कागज़
चीन के बाद अन्य देशों में भी इसका इस्तेमाल होने लगा। लेकिन इसमें भी
1000 वर्ष लग गए। फिर यूरोपीय एवं एशियाई देशों में भी फैल गया। भारत में
कागज का विकास 400 ईसा पूर्व हुआ। उसके कुछ ही समय के बाद 500 ईसा बाद अबू
खिलाफत के लोगों ने भी कागज बनाना शुरू कर दिया। समरकंद में 751 ईसा में
चीनी और अरबियों के बीच के बहुत बड़ी लड़ाई हुई। अरबियों ने चीन के कुछ लोगों
को बंदी बना लिया, जिसमें से कुछ चीनियों को कागज बनाना आता था और
उन्होंने अपनी आजादी के बदले उन्हें कागज बनाने की विधि बता दी। भारत से
लेकर स्पेन तक पूरी दुनिया के लोगों ने कागज का इस्तेमाल करना शुरू कर
दिया। लेकिन यूरोप के ईसाई अभी भी चर्मपत्र का ही उपयोग कर रहे थे।
कागज़ बनाने वाली मशीन
सन् 1200 की शुरुआत में ईसाईयों ने स्पेन के इस्लामियों को पराजित कर उस
पर कब्जा कर लिया और कागज बनाना जान लिया। 1250 ईसा पूर्व इटालियंस ने
अच्छे कागज बनाना सीखा और फिर उसे पूरे यूरोप में बेच दिया। 1338 में
फ्रेंच भिक्षुओं ने अपना खुद का कागज बनाना शुरू किया। 1411 के आविष्कार
के लगभग एक या डेढ़ शताब्दी के बाद जर्मनी के लोगों ने अपना चीर कागज बनाना
प्रारंभ कर दिया था। एक बार जब उन्होंने कागज बनाना सीख लिया तो वो चीनी
मुद्रण में भी उत्सुक होने लगे और 1453 में गुटनबर्ग नामक व्यक्ति ने पहली
मुद्रित बाइबिल का उत्पादन किया।
(चीर कागज आज भी दुनिया का सबसे महंगा कागज है जो की आधुनिक कागज से भी ज्यादा महंगा है जोकि लकड़ी और रसायन से बनता है)
राइस पेपर (पारदर्शक कागज़) में चित्रकारी
इस समय तक एज्टेक(माडर्न मेक्सिको) देश के लोगों ने भी स्वतंत्र रूप से
कागज का आविष्कार शुरू कर दिया था। इनका कागज वनकुमारी के पौधे के फाइबर
से बना होता था जिसका उपयोग लोग किताबें बनाने में किया करते थे।
इसी बीच चीन के लोग कागज का इस्तेमाल विभिन्न तरह से करने लगे।
रंगीन कागज़
ओशो कथा-सागर |
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आंतरिक जागरूकता जरुरी है
उस सेचतना में, जिस आनंद का अनुभव
हुआ है, अब मैं चाहता हूं, मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की
संपदा में मुझे भी कोई रस दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतना में मैंने
अपने भीतर जो सपंदा देखी है, वह इस संसार में कहीं भी नहीं है...
एक
बहुत अद्भुत आदमी था। वह चोरों का गुरु था। सच तो यह है कि चोरों के
अतिरिक्त और किसी का कोई गुरु होता ही नहीं। चोरी सीखने के लिए गुरु की बड़ी
जरूरत है। तो जहां-जहां चोरी, वहां-वहां गुरु। जहां-जहां गुरु, वहां वहां
चोरी। वहां चोरों का गुरु था, मास्टर थीफ था। उस जैसा कुशल कोई चोर नहीं
था। कुशलता थी। वह तो एक तकनीकि था, एक शिल्प था। जब बूढ़ा हो गया तो उसके
लड़के ने कहा कि मुझे भी सिखा दें। उसके गुरु ने कहाः यह बड़ी कठिन बात है।
पिता ने चोरी करनी बंद कर दी थी। उसने कहाः यह बहुत कठिन बात है। फिर मैंने
चोरी करनी बंद कर दी, क्योंकि चोरी में कुछ ऐसी घटनाएं? उसने कहाः कुछ ऐसे
खतरें आए कि उन खतरों में मैं इतना जाग गया, जागने की वजह से चोरी
मुश्किल हो गई। और जागने की वजह से उस संपत्ति का ख्याल आया है जो सोने के
कारण दिखाई नहीं पड़ती थी। अब मैं एक दूसरी ही चोरी में लग गया हूं। अब मैं
परमात्मा की चोरी कर रहा हूं। पहले आदमियों की चोरी करता रहा।
लेकिन मैं तुम्हें एक कोशिश करूंगा, शायद तुम्हें यह भी हो जाए। चाहता तो
यही हूं कि तुम आदमियों के चोर मत बनो, परमात्मा के चोर बनो। लेकिन शुरू आत
आदमियों की चोरी से कर देने में भी कोई हर्जा नहीं है।
ऐसे हर आदमी ही, आदमी की ही चोरी से शुरुआत करता है। हर आदमी के हाथ दूसरे
आदमी की जेब में पड़े होते हैं। जमीन पर दो ही तरह के चोर हैं-आदमियों से
चुराने वाले और परमात्मा से चुरा लेने वाले। परमात्मा से चुरा लेने वाले तो
बहुत कम हैं-जिनके हाथ परमात्मा की जेब में चले जाएं। लेकिन आदमियों के तो
हाथ में सारे लोग एक-दूसरे की जेब में डाले ही रहते हैं। और खुद के दोनों
हाथ दूसरे की जेब में डाल देते हैं, तो दूसरों को उनकी जेब में हाथ डालने
की सुविधा हो जाती है। स्वाभाविक है, क्योंकि अपनी जेब की रक्षा करें तो
दूसरे की जेब से निकाल नहीं सकते। दूसरे की जेब से निकालें तो अपनी जेब
असुरक्षित छूट जाती है, उसमें से दूसरे निकालते हैं। एक म्युचुअल, एक
पारस्परिक चोरी सारी दुनिया में चल रही है।
उसने कहा कि लेकिन चाहता हैं कि कभी तुम परमात्मा के चोर बन सको। तुम्हें
मैं ले चलूंगा। दूसरे दिन वह अपने युवा लड़के को लेकर राजमहल में चोरी के
लिए गया। उसने जाकर आहिस्ता से दीवाल की ईंटें सरकाई, लड़का थर-थर कांप रहा
है खड़ा हुआ। आधी रात है, राजमहल है, संतरी द्वारों पर खड़े हैं, और वह इतनी
शांति से ईंटे निकाल कर रख रहा है कि जैसे अपना घर हो। लड़का थर-थर कांप रहा
है। लेकिन बूढ़े बाप के बूढ़े हाथ बड़े कुशल हैं। उसने आहिस्ता से ईंटें
निकाल कर रख दीं। उसने लड़के से कहाः कंपो मत। साहूकारों को कंपना शोभा देता
है, चोरों को नहीं। यह काम नहीं चल सकेगा। अगर कंपोगे तो क्या चोरी करोगे?
कंपन बंद करो। देखो, मेरे बूढ़े हाथ भी कंपते नहीं।
सेंध लगा कर बूढ़ा बाप भीतर हुआ। उसके पीछे उसने अपने लड़के को भी बुलाया। वे
महल के अंदर पहुंच गए। उसने कई ताले खोले और महल के बीच के कक्ष में वे
पहुंच गए। कक्ष में एक बहुत बड़ी बहुमूल्य कपड़ों की अलमारी थी। अलमारी को
बूढ़े ने खोला। और लड़के से कहाः भीतर घुस जाओ और जो भी कीमती कपड़े हों, बाहर
निकाल लो। लड़का भीतर गया, बूढ़े बाप ने दरवाजा बंद करके ताला बंद कर दिया।
जोर से सामान पटका और चिल्लाया-चोर। और सेंध से निकल कर घर के बाहर हो गया।
सारा महल जग गया। और लड़के के प्राण आप सोच सकते हैं, किस स्थिति में नहीं
पहुंच गए होंगे। यह कल्पना भी न की थी कि यह बाप ऐसा दुष्ट हो सकता है।
लेकिन सिखाते समय सभी मां-बाप को दुष्ट होना पड़ता है। लेकिन एक बात हो गई
-ताला बंद कर दिया गया बाप, कोई उपाय नहीं छोड़ गया बचने का। चिल्ला गया
है-महल के संतरी जाग गये, नौकर-चाकर जाग गए हैं, प्रकाश जल गए हैं,
लालटेनें घूमने लगी हैं, चोर की खोज हो रही है। चोर जरूर मकान के भीतर है।
दरवाजे खुले पड़े हैं, दीवाल में छेद है।
फिर एक नौकरानी मोमबत्ती लिए हुए उस कमरे में भी आ गई है, जहां वह बंद है।
अगर वे लोग न भी देख पाएं तो भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह बंद है और निकल
नहीं सकता, दरवाजे पर ताला है बाहर। लेकिन कुछ हुआ। अगर आप उस जगह होते तो
क्या होता?
आज रात सोते वक्त जरा ख्याल करना कि उस जगह अगर मैं होता उस लड़के की जगह
तो क्या होता? क्या उस वक्त आप विचार कर सकते थे? विचार करने की कोई
गुंजाइश ही नहीं थी। उस वक्त आप क्या सोचेते? सोचने का कोई मौका नहीं था।
उस वक्त आप क्या करते? कुछ भी करने का उपाय नहीं था। द्वार बंद, बाहर ताला
लगा हुआ है, संतरी अंदर घुस आए हैं, नौकर भीतर खड़े हैं, घर भर में खोज-बीज
की जा रही है-आप क्या करते?
उस लड़के के पास करने को कुछ भी नहीं था। न करने के कारण वह बिल्कुल शांत हो
गया। उस लड़के के पास सोचने को कुछ नहीं था। सोचने की कोई जगह नहीं थी,
गुंजाइश नहीं थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा था।
जिंदगी मुश्किल में थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा
था। जिंदगी मुश्किल में थी। वह एकदम अलर्ट हो गया। ऐसी अलर्टनेस, ऐसी
सचेतता, ऐसी सावधानी उसने जीवन में देखी नही थी। ऐसे खतरे को ही नहीं देखा
था। और उस सावधानी में कुछ होना शुरू हुआ। उस सचेतना के कारण कुछ होना
शुरू हुआ-जो वह नहीं कर रहा था, लेकिन हुआ। उसने कुछ, अपने नाखून से
दरवाजा खरोंचा। नौकरानी पास से निकलती थी। उसने सोचा शायद चूहा या बिल्ली
कपड़ों की अलमारी में अंदर है। उसने ताला खोला, मोमबत्ती बुझा दी। बुझाई, यह
कहना केवल भाषा की बात है। मोमबत्ती बुझा दी गयी, क्योंकि युवक ने सोचा
नहीं था कि मैं मोमबत्ती बुझा दूं। मोमबत्ती दिखाई पड़ी, युवक शांत खड़ा था,
सचेत, मोमबत्ती बुझा दी, नौकरानी को धक्का दिया; अंधेरा था, भागा।
नौकर उसके पीछे भागे। दीवाल से बाहर निकला। जितनी ताकत से भाग सकता था, भाग
रहा था। भाग रहा था कहना गलत हैं, क्योंकि भागने का कोई उपक्रम, कोई
चेष्टा, कोई एफर्ट वह नहीं कर रहा था। बस, पा रहा था कि मैं भाग रहा हूं।
और फिर पीछे लोग लगे थे। वह एक कुंए के पास पहुंचा, उसने एक पत्थर को उठा
कर कुएं में पटका। नौकरों ने कुएं को घेर लिया। वे समझे कि चोर कुएं में
कूद गया है। वह एक दरख्त के पीछे पड़ा था, फिर आहिस्ता से अपने घर पहुंचा।
जाकर देखा, उसका पिता कंबल ओढे सो रहा था। उसने कंबल झटके से खोला और कहा
कि आप यहां सो रहे हैं, मुझे मुश्किल में फंसा कर? उसने कहाः अब बात मत
करो। तुम आ गये, बात खत्म हो गयी। कैसे आए-तुम खुद ही सोच लेना। कैसे आए
तुम वापस? उसने कहाः मुझे पता नहीं कि मैं कैसे आया हूं। लेकिन कुछ बातें
घटीं। मैंने जिंदगी में ऐसी अलर्टनेस, ऐसी ताजगी, ऐसा होश कभी देखा नहीं
था। और आउट ऑफ दैट अलर्टनेस, उस सचेतता के भीतर से फिर कुछ होना शुरू हुआ,
जिसको मैं नहीं कह सकता कि मैंने किया। मैं बाहर आ गया हूं।
उस बूढे ने कहाः अब दुबारा भीतर जाने का इरादा है? उस युवक ने कहाः उस
सेचतना में, उस अवेयरनेस में जिस आनंद का अनुभव हुआ है, अब मैं चाहता हूं,
मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की संपदा में मुझे भी कोई रस
दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतना में मैंने अपने भीतर जो सपंदा देखी है,
वह इस संसार में कहीं भी नहीं है।
तो मैं परमात्मा के चोर होना आपको सिखाना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले इन
तीन सूत्रों पर...इन तीन दिनों में अगर आप सहयोग देंगे, तो इसमें कोई बहुत
आश्चर्य नहीं है कि जाते वक्त आप अपने सामान में परमात्मा की भी थोड़ी सी
संपदा ले जाते हुए अपने आप को अनुभव करें। वह संपत्ति सब जगह मौजूद है।
लेकिन कोई हिम्मतवर चोर आता ही नहीं कि उस संपत्ति को चुराए और अपने घर ले
जाए।
परमात्मा करे, आप भी एक मास्टर थीफ हो सकें, एक कुशल चोर हो सकें उस बड़ी
संपदा को चुराने में। उस चोरी के सिखाने का ही यहां राज तीन दिनों में आपसे
मैं कहूंगा। और आपका सहयोग रहा तो यह बात हो सकती है।
-ओशो
पुस्तकः असंभव क्रांति
प्रवचन नं. 1 से संकलित
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ओशो कथा-सागर |
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आंतरिक जागरूकता जरुरी है
उस सेचतना में, जिस आनंद का अनुभव
हुआ है, अब मैं चाहता हूं, मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की
संपदा में मुझे भी कोई रस दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतना में मैंने
अपने भीतर जो सपंदा देखी है, वह इस संसार में कहीं भी नहीं है...
एक
बहुत अद्भुत आदमी था। वह चोरों का गुरु था। सच तो यह है कि चोरों के
अतिरिक्त और किसी का कोई गुरु होता ही नहीं। चोरी सीखने के लिए गुरु की बड़ी
जरूरत है। तो जहां-जहां चोरी, वहां-वहां गुरु। जहां-जहां गुरु, वहां वहां
चोरी। वहां चोरों का गुरु था, मास्टर थीफ था। उस जैसा कुशल कोई चोर नहीं
था। कुशलता थी। वह तो एक तकनीकि था, एक शिल्प था। जब बूढ़ा हो गया तो उसके
लड़के ने कहा कि मुझे भी सिखा दें। उसके गुरु ने कहाः यह बड़ी कठिन बात है।
पिता ने चोरी करनी बंद कर दी थी। उसने कहाः यह बहुत कठिन बात है। फिर मैंने
चोरी करनी बंद कर दी, क्योंकि चोरी में कुछ ऐसी घटनाएं? उसने कहाः कुछ ऐसे
खतरें आए कि उन खतरों में मैं इतना जाग गया, जागने की वजह से चोरी
मुश्किल हो गई। और जागने की वजह से उस संपत्ति का ख्याल आया है जो सोने के
कारण दिखाई नहीं पड़ती थी। अब मैं एक दूसरी ही चोरी में लग गया हूं। अब मैं
परमात्मा की चोरी कर रहा हूं। पहले आदमियों की चोरी करता रहा।
लेकिन मैं तुम्हें एक कोशिश करूंगा, शायद तुम्हें यह भी हो जाए। चाहता तो
यही हूं कि तुम आदमियों के चोर मत बनो, परमात्मा के चोर बनो। लेकिन शुरू आत
आदमियों की चोरी से कर देने में भी कोई हर्जा नहीं है।
ऐसे हर आदमी ही, आदमी की ही चोरी से शुरुआत करता है। हर आदमी के हाथ दूसरे
आदमी की जेब में पड़े होते हैं। जमीन पर दो ही तरह के चोर हैं-आदमियों से
चुराने वाले और परमात्मा से चुरा लेने वाले। परमात्मा से चुरा लेने वाले तो
बहुत कम हैं-जिनके हाथ परमात्मा की जेब में चले जाएं। लेकिन आदमियों के तो
हाथ में सारे लोग एक-दूसरे की जेब में डाले ही रहते हैं। और खुद के दोनों
हाथ दूसरे की जेब में डाल देते हैं, तो दूसरों को उनकी जेब में हाथ डालने
की सुविधा हो जाती है। स्वाभाविक है, क्योंकि अपनी जेब की रक्षा करें तो
दूसरे की जेब से निकाल नहीं सकते। दूसरे की जेब से निकालें तो अपनी जेब
असुरक्षित छूट जाती है, उसमें से दूसरे निकालते हैं। एक म्युचुअल, एक
पारस्परिक चोरी सारी दुनिया में चल रही है।
उसने कहा कि लेकिन चाहता हैं कि कभी तुम परमात्मा के चोर बन सको। तुम्हें
मैं ले चलूंगा। दूसरे दिन वह अपने युवा लड़के को लेकर राजमहल में चोरी के
लिए गया। उसने जाकर आहिस्ता से दीवाल की ईंटें सरकाई, लड़का थर-थर कांप रहा
है खड़ा हुआ। आधी रात है, राजमहल है, संतरी द्वारों पर खड़े हैं, और वह इतनी
शांति से ईंटे निकाल कर रख रहा है कि जैसे अपना घर हो। लड़का थर-थर कांप रहा
है। लेकिन बूढ़े बाप के बूढ़े हाथ बड़े कुशल हैं। उसने आहिस्ता से ईंटें
निकाल कर रख दीं। उसने लड़के से कहाः कंपो मत। साहूकारों को कंपना शोभा देता
है, चोरों को नहीं। यह काम नहीं चल सकेगा। अगर कंपोगे तो क्या चोरी करोगे?
कंपन बंद करो। देखो, मेरे बूढ़े हाथ भी कंपते नहीं।
सेंध लगा कर बूढ़ा बाप भीतर हुआ। उसके पीछे उसने अपने लड़के को भी बुलाया। वे
महल के अंदर पहुंच गए। उसने कई ताले खोले और महल के बीच के कक्ष में वे
पहुंच गए। कक्ष में एक बहुत बड़ी बहुमूल्य कपड़ों की अलमारी थी। अलमारी को
बूढ़े ने खोला। और लड़के से कहाः भीतर घुस जाओ और जो भी कीमती कपड़े हों, बाहर
निकाल लो। लड़का भीतर गया, बूढ़े बाप ने दरवाजा बंद करके ताला बंद कर दिया।
जोर से सामान पटका और चिल्लाया-चोर। और सेंध से निकल कर घर के बाहर हो गया।
सारा महल जग गया। और लड़के के प्राण आप सोच सकते हैं, किस स्थिति में नहीं
पहुंच गए होंगे। यह कल्पना भी न की थी कि यह बाप ऐसा दुष्ट हो सकता है।
लेकिन सिखाते समय सभी मां-बाप को दुष्ट होना पड़ता है। लेकिन एक बात हो गई
-ताला बंद कर दिया गया बाप, कोई उपाय नहीं छोड़ गया बचने का। चिल्ला गया
है-महल के संतरी जाग गये, नौकर-चाकर जाग गए हैं, प्रकाश जल गए हैं,
लालटेनें घूमने लगी हैं, चोर की खोज हो रही है। चोर जरूर मकान के भीतर है।
दरवाजे खुले पड़े हैं, दीवाल में छेद है।
फिर एक नौकरानी मोमबत्ती लिए हुए उस कमरे में भी आ गई है, जहां वह बंद है।
अगर वे लोग न भी देख पाएं तो भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह बंद है और निकल
नहीं सकता, दरवाजे पर ताला है बाहर। लेकिन कुछ हुआ। अगर आप उस जगह होते तो
क्या होता?
आज रात सोते वक्त जरा ख्याल करना कि उस जगह अगर मैं होता उस लड़के की जगह
तो क्या होता? क्या उस वक्त आप विचार कर सकते थे? विचार करने की कोई
गुंजाइश ही नहीं थी। उस वक्त आप क्या सोचेते? सोचने का कोई मौका नहीं था।
उस वक्त आप क्या करते? कुछ भी करने का उपाय नहीं था। द्वार बंद, बाहर ताला
लगा हुआ है, संतरी अंदर घुस आए हैं, नौकर भीतर खड़े हैं, घर भर में खोज-बीज
की जा रही है-आप क्या करते?
उस लड़के के पास करने को कुछ भी नहीं था। न करने के कारण वह बिल्कुल शांत हो
गया। उस लड़के के पास सोचने को कुछ नहीं था। सोचने की कोई जगह नहीं थी,
गुंजाइश नहीं थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा था।
जिंदगी मुश्किल में थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा
था। जिंदगी मुश्किल में थी। वह एकदम अलर्ट हो गया। ऐसी अलर्टनेस, ऐसी
सचेतता, ऐसी सावधानी उसने जीवन में देखी नही थी। ऐसे खतरे को ही नहीं देखा
था। और उस सावधानी में कुछ होना शुरू हुआ। उस सचेतना के कारण कुछ होना
शुरू हुआ-जो वह नहीं कर रहा था, लेकिन हुआ। उसने कुछ, अपने नाखून से
दरवाजा खरोंचा। नौकरानी पास से निकलती थी। उसने सोचा शायद चूहा या बिल्ली
कपड़ों की अलमारी में अंदर है। उसने ताला खोला, मोमबत्ती बुझा दी। बुझाई, यह
कहना केवल भाषा की बात है। मोमबत्ती बुझा दी गयी, क्योंकि युवक ने सोचा
नहीं था कि मैं मोमबत्ती बुझा दूं। मोमबत्ती दिखाई पड़ी, युवक शांत खड़ा था,
सचेत, मोमबत्ती बुझा दी, नौकरानी को धक्का दिया; अंधेरा था, भागा।
नौकर उसके पीछे भागे। दीवाल से बाहर निकला। जितनी ताकत से भाग सकता था, भाग
रहा था। भाग रहा था कहना गलत हैं, क्योंकि भागने का कोई उपक्रम, कोई
चेष्टा, कोई एफर्ट वह नहीं कर रहा था। बस, पा रहा था कि मैं भाग रहा हूं।
और फिर पीछे लोग लगे थे। वह एक कुंए के पास पहुंचा, उसने एक पत्थर को उठा
कर कुएं में पटका। नौकरों ने कुएं को घेर लिया। वे समझे कि चोर कुएं में
कूद गया है। वह एक दरख्त के पीछे पड़ा था, फिर आहिस्ता से अपने घर पहुंचा।
जाकर देखा, उसका पिता कंबल ओढे सो रहा था। उसने कंबल झटके से खोला और कहा
कि आप यहां सो रहे हैं, मुझे मुश्किल में फंसा कर? उसने कहाः अब बात मत
करो। तुम आ गये, बात खत्म हो गयी। कैसे आए-तुम खुद ही सोच लेना। कैसे आए
तुम वापस? उसने कहाः मुझे पता नहीं कि मैं कैसे आया हूं। लेकिन कुछ बातें
घटीं। मैंने जिंदगी में ऐसी अलर्टनेस, ऐसी ताजगी, ऐसा होश कभी देखा नहीं
था। और आउट ऑफ दैट अलर्टनेस, उस सचेतता के भीतर से फिर कुछ होना शुरू हुआ,
जिसको मैं नहीं कह सकता कि मैंने किया। मैं बाहर आ गया हूं।
उस बूढे ने कहाः अब दुबारा भीतर जाने का इरादा है? उस युवक ने कहाः उस
सेचतना में, उस अवेयरनेस में जिस आनंद का अनुभव हुआ है, अब मैं चाहता हूं,
मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की संपदा में मुझे भी कोई रस
दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतना में मैंने अपने भीतर जो सपंदा देखी है,
वह इस संसार में कहीं भी नहीं है।
तो मैं परमात्मा के चोर होना आपको सिखाना चाहता हूं। लेकिन उसके पहले इन
तीन सूत्रों पर...इन तीन दिनों में अगर आप सहयोग देंगे, तो इसमें कोई बहुत
आश्चर्य नहीं है कि जाते वक्त आप अपने सामान में परमात्मा की भी थोड़ी सी
संपदा ले जाते हुए अपने आप को अनुभव करें। वह संपत्ति सब जगह मौजूद है।
लेकिन कोई हिम्मतवर चोर आता ही नहीं कि उस संपत्ति को चुराए और अपने घर ले
जाए।
परमात्मा करे, आप भी एक मास्टर थीफ हो सकें, एक कुशल चोर हो सकें उस बड़ी
संपदा को चुराने में। उस चोरी के सिखाने का ही यहां राज तीन दिनों में आपसे
मैं कहूंगा। और आपका सहयोग रहा तो यह बात हो सकती है।
-ओशो
पुस्तकः असंभव क्रांति
प्रवचन नं. 1 से संकलित
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