Sunday, December 9, 2012

जिंदगी को जिंदा जीना...,,,तनाव और विश्राम

तनाव और विश्राम
हम शरीर में जो तनाव महसूस करते हैं, उसका मूल कारण है कुछ बनने की इच्छा। हर आदमी कुछ न कुछ बनने की चेष्टा कर रहा है। जो जैसा है, उसके साथ संतुष्ट नहीं है। हमारा होना स्वीकृति नहीं है, उसे इंकार किया जा सकता है और दूर कहीं एक लक्ष्य निर्मित किया जाता है। तो मूलभूत तनाव है-जो तुम हो और तुम बनना चाहते हो, उसके बीच की दूरी।

तुम जिसकी भी आकांक्षा करते हो वह भविष्य में पूरी होगी। आज तुम जो भी हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। लक्ष्य जितना असंभव होगा, उतना तनाव अधिक होगा। तो भौतिकवादी आदमी इतना तनावपूर्ण नहीं होगा, जितना कि आध्यात्मिक व्यक्ति, क्योंकि उसका आदर्श व लक्ष्य बड़ा ऊंचा है।

तुम और तुम्हारे लक्ष्य के बीच जितनी दूरी होगी उतना तनाव अधिक, दूरी जितनी कम होगी, तनाव भी कम। यदि तुम स्वयं से पूर्णतया संतुष्ट हो तो तनाव बिल्कुल नहीं है। तुम इस क्षण में जीते हो। मेरी दृष्टि में, तुम्हारे होने और बनने के बीच कोई दूरी नहीं हो तो तुम धार्मिक हो।

इस दूरी के कई तल हो सकते हैं तुम जिसकी आकांक्षा करते हो, अगर वह कोई शारीरिक वस्तु है तुम्हारे भौतिक शरीर मे तनाव होगा। जैसे तुम सुंदर दिखना चाहते हो-इसका तनाव तुम्हारे भौतिक शरीर में शुरू होगा। यदि वह बना रहा, मजबूत होता चला गया तो भीतर के गहरे तलों पर पहुँचेगा।

यदि तुम मानसिक शक्ति के लिए तरस रहे हो तो मानसिक तल पर तनाव शुरू होगा और वहां से फैलेगा। इसका फैलना ऐसे ही है, जैसे तुम तालाब में पत्थर फेंको तो वह एक खास बिंदु पर गिरता है, लेकिन उसकी लहरें फैलती चली जाती हैं। तो तनाव तुम्हारे सात शरीरों में से किसी भी शरीर में शुरू हो सकता है, लेकिन इसका कारण वह बना रहता है-तुम्हारे होने और बनने के बीच की दूरी।

तनाव से मुक्त होने का एक ही उपाय है-स्वयं का संपूर्ण स्वीकार। संपूर्ण स्वीकार से चमत्कार घटित होता है। यह एकमात्र चमत्कार है। ऐसे व्यक्ति को खोजना, जिसने स्वयं को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है, एक आश्चर्यजनक घटना है।

अस्तित्व में कोई तनाव नहीं हैं। तनाव पैदा होता है गैर—अस्तित्वगत, काल्पनिक संभावनाओं से। वर्तमान में कोई तनाव नहीं है। कल्पना तुम्हें भविष्य की और दौड़ाती है, उसी से तनाव पैदा होता है। आदमी जितना कल्पनाशील हो, उतना तनाव में जीता है। तब फिर कल्पना विनाशक हो जाती है।

कल्पना रचनात्मक भी हो सकती है। यदि तुम्हारी कल्पना की पूरी क्षमता इस क्षण में केन्द्रित हो, आगे नहीं दौड़ रही हो तो तुम देख सकते हो कि तुम्हारा होना एक कविता है। तुम्हारी कल्पना शक्ति जीने में खर्च हो रही है, योजनाएं बनाने में नहीं। वर्तमान में जीना ही तनाव मुक्त जीना है।

...यदि तुम्हारा शरीर तनाव मुक्त वर्तमान में जी सके तो सही अर्थों में स्वास्थ्य का जन्म होता है। शरीर ऐसे विश्राम को उपलब्ध होता है, जो तुमने कभी नहीं जाना होगा। तब उसके लिए क्षण ही शाश्वत हो जाता है। फिर तो तुम भोजन ले रहे हो तो खाना ही सब कुछ होगा। उसके आगे न कुछ है, न पीछे कुछ है। भोजन करने वाला कोई नहीं होगा, भोजन की क्रिया ही सब कुछ होगी।

यदि तुम दौड़ लगा रहे हो और दौड़ना तुम्हारी समग्रता बन गई हैं, दौड़ने से जो संवेदनाएं उठ रही हैं, उनके साथ यदि तुम एक हो गए हो, उनसे अलग-थलग नहीं हो, तो तुम्हारा शरीर एक विधायक स्वास्थ्य को अनुभव करता है। शरीर के तल पर तुमने विश्रामपूर्ण अंतरतम को अनुभूत कर लिया।
-ओशो
'दी साइक्लोजी ऑफ दी इसोटेरिक'



जिंदगी को जिंदा जीना...
जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। और अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता हैं
मैंने सुना है कि एक बगीचे में एक छोटा सा फूल—घास का फूल—दीवाल की ओट में ईटों में दबा हुआ जीता था। तूफान आते थे, उस पर चोट नहीं हो पाती थी, ईटों की आड़ थी। सूरज निकलता था, उस फूल को नहीं सता पाता था, उस पर ईटों की आड़ थी। बरसा होती थी, बरसा उसे गिरा नहीं पाती थी, क्योंकि वह जमीन पर पहले ही से लगा हुआ था। पास में ही उसके गुलाब के फूल थे।
एक रात उस घास के फूल ने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैं कब तक घास का फूल बना रहूंगा। अगर तेरी जरा भी मुझ पर कृपा है तो मुझे गुलाब का फूल बना दे। परमात्मा ने उसे बहुत समझाया कि तू इस झंझट में मत पड़, गुलाब के फूल की बड़ी तकलीफें हैं। जब तूफान आते हैं, तब गुलाब की जड़ें भी उखड़ी-उखड़ी हो जाती हैं। और जब गुलाब में फूल खिलता है, तो खिल भी नहीं पाता कि कोई तोड़ लेता है। और जब बरसा आ आती है तो गुलाब की पंखुड़िया बिखरकर जमीन पर गिर जाती हैं। तू इस झंझट में मत पड़, तू बड़ा सुरक्षित है। उस घास के फूल ने कहा कि बहुत दिन सुरक्षा में रह लिया, अब मुझे झंझट लेने का मन होता है। आप तो मुझे बस गुलाब का फूल बना दें। सिर्फ एक दिन के लिए सही, चौबीस घंटे के लिए सही। पास-पड़ोस के घास के फूलों ने समझाया, इस पागलपन में मत पड़, हमने सुनी हैं कहानियाँ कि पहले भी हमारे कुछ पूर्वज इस पागलपन में पड़ चुके हैं, फिर बड़ी मुसीबत आती है। हमारा जातिगत अनुभव यह कहता है कि हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं। पर उसने कहा कि मैं कभी सूरज से बात नहीं कर पाता, मैं कभी तूफानों से नहीं लड़ पाता, मैं कभी बरसा को झेल नहीं पाता। उनके पास के फूलों ने कहा, पागल, जरूरत क्या है? हम ईंट की आड़ में आराम से जीते हैं। न धूप हमें सताती, न बरसा हमें सताती, न तूफान हमें छू सकता।
लेकिन वह नहीं माना और परमात्मा ने उसे वरदान दे दिया और वह सुबह गुलाब का फूल हो गया। और सुबह से ही मुसीबतें शुरु हो गयी। जोर की आंधियां चलीं, प्राण का रोआं-रोआं उसका कांप गया, जड़े उखड़ने लगीं। नीचे दबे हुए उसके जाति के फूल कहने लगे, देखा पागल को, अब मुसीबत पड़ा। दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ। फूल तो खिले थे, लेकिन कुम्हलाने लगे। बरसा आई, पंखुड़िया नीचे गिरने लगीं। फिर तो इतने जोर की बरसा आई कि सांझ होते-होते जड़े उखड़ गई और वह वृक्ष, वह फूलों का, गुलाब के फूलों का पौधा जमीन पर गिर पड़ा। जब वह जमीन पर गिर पड़ा, तब वह अपने फूलों के करीब आ गया। उन फूलों ने उससे कहा, पागल, हमने पहले ही कहा था। व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई। मुश्किलें ले ली नई अपनी हाथ से। हमारी पुरानी सुविधा थी, माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, लेकिन सब आदी था, परिचित था, साथ-साथ जीते थे, सब ठीक थे।
उस मरते हुए गुलाब के फूल ने कहा, ना समझो, मैं तुमसे भी यही कहूंगा कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में छिपे हुए घास का फूल होने से चौबीस घंटे के लिए फूल हो जाना बहुत आनंदपूर्ण है।
मैंने अपनी आत्मा पा ली, मैं तूफानों से लड़ लिया, मैंने सूरज से मुलाकात ले ली, मैं हवाओं से जूझ लिया, मैं ऐसे ही नहीं मर रहा हूं, मैं जी कर मर रहा हूं। तुम मरे हुए जी रहे हो।
निश्चित ही जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। और अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता हैं।
-ओशो
पुस्तक: कृष्ण स्मृति
प्रवचन नं. 7 से संकलित
(पूरा प्रवचन एम. पी. थ्री. पर भी उपलब्ध है।)

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